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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद विरोध विदादका अभाव हो भिन्नतामें एकत्व ( Unity in diversity ) को सृष्टि होगी; आधुनिक युगमें यदि स्याद्वाद शैलीके प्रकाशमें भिन्न-भिन्न संप्रदायवाले प्रगति करें, तो बहुत कुछ विरोधका परिहार हो सकता है। आत्मविकास के क्षेत्रमें भी अनेकान्त विद्या द्वारा निर्मल ज्योति प्राप्त होती है। लोकिक दृष्टिसे जैसे घृतसम्बद्ध मिट्टीके पडेको धीका घड़ा कहते हैं, उसी प्रकार शरीरसे सम्बद्ध जीवको भिन्न-भिन्न नाम आदि उपाधियाँ सहित कहते है। परमार्य दृष्टि से घोका घड़ा कथन सत्य नहीं है, क्योंकि घड़ा मिट्टीका है। मिट्टी घडेका उपादान कारण है, इस उपादान कारण नहीं है। इस कारण मिट्टीका घड़ा कथन वास्तविक है। इसी प्रकार पारमार्थिक निश्चम दृष्टिसे आत्मा शरीरसे जुदा है। ज्ञान आनंद-शक्तिका अक्षय भंडार है । व्यावहारिकलौकिक दृष्टि से तत्वको जानकर परमार्थ दृष्टिद्वारा साधनाके मार्गपर चलकर निर्वाणको प्राप्त करना साधकका कर्तव्य है । __ व्यवहार दृष्टि जहाँ ईश-चितन, भगवद्भक्ति आदिको कल्याणका मार्ग प्राथमिक साधकको बताती है, वहां निश्चय दुष्टि श्रेष्ठ पयको प्रदर्शित करते हुए कहती है "यः परात्मा स एवाहं योऽहं सः परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यः नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।।" __ -समाधिशतक ३१॥ जो परमात्मा है, वह में है । जो मैं है, वह परमात्मा है। अतः मुझे अपनी भास्माकी आराधना करनी चाहिये, अन्यकी नहीं; यह वास्तविक बात है। स्याद्वाद तत्त्वज्ञानके मार्मिक आचार्य अमतचन्द्र अनेकांतवादके प्रति इन शब्दोंमें प्रभामांजलि समर्पित करते हैं "परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनय-विलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।" -पुरुषार्थसिद्धयुपाय २१
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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