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________________ १२४ जैनशासन रक्षणपूर्वक अल्पलाभमें भी वह सन्तुष्ट रहता । वह जानता है कि शुद्ध तथा उचित उपायों से आवश्यकतापूरक संपत्ति मिलेगी. अधिक नहीं। वह सम्पत्ति के स्थानमें पुण्याचरणको बड़ी और सच्ची सम्पत्ति मानता है । आत्मानुशासम में लिखा है : "शुद्धधविवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥४५॥" सत्पुरुषों तककी सम्पत्ति शुद्ध धनसे नहीं बढ़ती है। स्वच्छ जलसे कभी भी समुद्र नहीं भरा जा सकता। एक कोटयधीश प्रख्यात जैन व्यवसायी बन्धुने हमसे पुछा--"हमनं दृष्पादिक प्रचार तथा पशुपालन निर्मित बहुतसे पशुओंका पालन किया है । जब पशु बद्ध होनेपर दूध देना बिलकुल बन्द कर देने है. तद् अन्य लोग जो इन निरुपयोगी पशुओंको कसाइयोंको बैंच खसे मुक्त हो द्रव्यलाभ हटाते है किन्तु जन होने के कारण हम उनको न वेचकर उनका भरण-पोषण करते हैं. इससे प्रतिस्पर्श के बाजार में हम विशेष आर्थिक लाभ से वंचित रहते हैं । बताइये आपकी उद्योगी हिंसाकी परिषिके भीतर क्या हम उन जरामर्थ पशुको बेच सकत है" मैने कहा--कभी नहीं ! उन्हें वेचना क्रूरता, कृतघ्नता तथा स्वार्थपरता होगी ।' जैसे अपने कटुम्बके माता, पिता आदि वृद्धजनोंके अर्थशास्त्रको भाषामें निरुपयोगी होनेपर भी नीतिशास्त्र तथा सौजन्य विद्याके उज्ज्वल प्रकाश में दीनसे दीन भी मनुष्य उनकी सेवा करते हुए उनकी विपत्तिको अवस्था में माराम पहुंचाता है। ऐसा ही व्यवहार उदार तथा विशाल सृष्टि रख पशु जगत्के उपकारी प्राणियोंका रक्षा करना कम्य है। बड़े-बड़े व्यवसायो अन्य मार्गोसे घनसंचय करके यदि अगनी उदारता द्वारा पापालनमें प्रवृत्ति करें, तो महिमा धर्म की रक्षाके साथ ही साथ राष्ट्रके स्वास्थ्य तथा शक्तिसंवर्धनमें भी विशेष सहायता प्राप्त हो। __मनुष्यजीवन श्रेष्ठ और उज्ज्वल कार्योंके लिए है। जो दिग्भ्रान्त प्राणी उसे अर्थ अर्जन करने की मशीन मोच येन केन प्रकार सम्पत्ति रांचयका साधन मानते हैं, वे अपने यथार्थ कल्याणसे वञ्चित रहते हैं। विवेकी मानब अपने आदर्श रक्षण के लिए आपत्ति की परवाह नहीं करता । 'नह तो, विपत्तियोंको आमंत्रण देना और अपने आत्मबलकी परीक्षा लेता है 1 ऐसा अहिंसक माराब, हड्डो, "वृद्धालश्याधितश्रीमान् पशून बान्धवानिव पोषयेत् ।" -नीतिवाक्यामृत, पृ० ९५ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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