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________________ अहिंसाके आलोकमें ૨૬ धमडा, मछलोके तेल सदृश हिंसाले साक्षात् सम्बन्धित वस्तुओंके व्यवसाय द्वारा बड़ा धनी बन राजप्रासाद खड़े करनेके स्थानपर ईमानदारी और कमणापूर्वक कमाई गई मुखी रोटीके टुकड़ोंको अपनी झोपड़ी में बैठकर खाना पसंद करेगा। वह जानता है लि हिंसादि पापों में लगनेवाला व्यक्ति नरक तथा तिमञ्च पर्वायमें वचनातीत विपत्तियों को भो। पता है ! सालान जीवनको आत्मामें महता है उसका स्वप्न में भी दान हिमकवृत्सिवालोंके पास नहीं होता । याह्य पदार्थों के अभावमें तनिक भी कष्ट नहीं है, यदि आत्माके पास सद्विचार, लोकोपकार और पवित्रताकी अमूल्य सम्पत्ति है। मैदाइको स्वतन्त्रताके लिए अपने राजसी ठाटको छोड़ बन चोंके समान घासकी रोटी तक खा जीवन व्यतीत करनेवाले क्षत्रिय कुल-अवतंस महाराणा प्रतापकी आत्मामें जो शान्ति और भक्ति थी, क्या उसका शतांश भी अकबरके अधीन बन माल उड़ाते हुए मात भूमिको पराधीन करने में उद्यत मानसिंहको प्राप्त था ? इसी दृष्टि से महिमाकी सम्वनामें कुछ ऊपरी अड़चनें आवें भी तो कुतर्ककी ओरसे हिसाकी ओर झुकना लाभप्रद न होगा । जिस कार्य में आत्माकी निर्मल वृत्तिका बात हो उससे सावधानीपूर्वक साधकको बचना चाहिए। ___इस हिसात्मक जीवन के विषय में लोगोंने अनेक भ्रान्त धारणाएं बाँध रखी है । कोई यह सुभाते है कि यदि आनन्दको अवस्थामें किसीको मार डाला जाए, तो शाम्तभावसे मरण करनेवालेकी सद्गति होगी । वे लोग नहीं सोचते कि मरने समय क्षण-मात्रमें परिणामोको क्यासे क्या गति नहीं हो जाती । प्राण परित्याग करते समय होनेवाली वेदनाको बेचारा प्राण लेने वाला क्या समझे ! "जाके पाँव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।" कोई सोचते हैं दुखी प्राणीक प्राणोंका अन्त कर धेने से उसका दुख दूर हो जाता है । ऐसी हो प्रेरणासे अहिंसाके विशेष आराधक गांधीजीने अपने सावरमती आश्रम में एक रुग्ण गो-वासको इन्जेक्शन द्वारा यममन्दिर पहुंचाया था । अहिंसाके अधिकारी ज्ञाता आचार्य ममतचन्न स्वामी इस कृतिमें पूर्णतया हिंसाका सद्भाव बतलाते हैं। जीवन-लीला समाप्त करने वाला अभवश अपनेको अहिंसक मानता है । वह नहीं सोचता कि जिस पूर्वसंचित पापकर्मक उदयसे प्राणी कस्टका अनुभव कर रहा है, प्राण लेने से उसकी वंदना कम नहीं होगी। उसके प्रकट होनेके साधनोंका अभाव हो जानेसे हमें उसकी यथार्थ अवस्थाका परिचम नहीं हो पाता । हो, प्राणघात करने के समान यदि उस जीवके मसाला देनेवाले कर्मका भी नाश हो जाता, तो उस कार्य में हिंसाका सदभाव स्वीकार किया जाता । पशुके साथ मनमाना व्यवहार इसलिए कर लिया जाता है कि उसके
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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