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________________ . १२६ जैनशासन पास अपने कष्टोंको व्यक्त करनेका समूचित साधन नहीं है । बछड़े के समान मनुष्याकृतिधारी किसी व्यक्तिके प्रति पूर्वोक्त करुशाका प्रदर्शन होता तो आधुनिक न्यायालय उसका इलाज किए बिना न रहता । यह भी कहा जाता है कि आँख कर उन पशुओं आदिके प्राण लो, जो दूसरोंके प्राण लिया करते हैं । इस भ्रान्त दृष्टिके दोषको बताते हुए पण्डितवर आशाधरजी समझाते हैं कि इस प्रक्रिया से समार में चारों ओर हिसा का दौर दौरा हो जावेगा तथा अतिप्रसंग नामका दोष आएगा। बड़े सिकोंका मारने वाला उससे भी बड़ा हिंसक माना जाएगा और इस प्रकार यह भी हनन किया जानेका पात्र समझा जाएगा | हिंसक शरीर धारण करने मात्र से ही हिसात्मक प्रवृत्तिका प्रदर्शन किए बिना उन्हें मार डालना विवेकशील मानव के लिए उचित नहीं कहा जा सकता । पशु जगत्में भी कभी-कभी कोई विशिष्ट हिंसकप्राणी की आत्मामें अहिंसाकी एक झलक आ जाती है। जैसा पहले बता दिया गया है कि भगवान् महाबीर बननेवाले सिंहकी पर्यायमें उस जीवने आहाकी चमत्कारिणी माघना आरम्भ कर दी थी। क्या बिना सोचे समझे उसके सिंह शरीरको देख उसे मृगारि मान लेना और उसके प्राणघात के लिए प्रवृत्ति करना उचित होगा ? आचार्य गुणभवने उस सिंहके विषय में लिखा है- "स्वायं मुगारिवोऽसी महे तस्मिन् वयावत" उस दबावान् सिंहके विषय में मृगारि मृगोंका शत्रु इस शब्द अपने यथार्थ अर्थका परित्याग कर दिया या वह शब्द रूदिवश प्रचार में आता था। यह भी बात साधक सोचता है कि इस अनन्त संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव आज सिंह, सर्पादि पर्याय में है और अपनी पर्यायदोष के कारण अहिंसात्मक वृत्तिको धारण नहीं कर सकता है, तो उसके जीवनकी समाप्ति कर देना कहाँ तक उचित है ? क्योंकि हिरान करना उन आत्म-विकासहीन पशुओंके समान मेरा धर्म नहीं है। जिस पशुको में मारनेकी सोचता हूँ सम्भव है कि मेरे अत्यन्त स्नेही हितैषी जीवका ही उस पर्याय में उत्पाद हुआ हो और दुर्भाग्यवश उस हतभाग्यको मनुष्योंके द्वारा क्रूर मानी जानेवाली पर्याय में प्राणी के हनन करनेके विचारसे बात्मामें क्रूरताका शैतान फिर उसमें से अहिंसाश्मक वृति दूर हो जाती है। अतएव दयालु व्यक्तिको अधिकसे अधिक प्रयत्न प्राणरक्षाका करना चाहिए। कभी-कभी जन्मान्तर में हिंसित जीव अण्डा बदला भी लेता है, यह नहीं भूलना चाहिए । जन्म मिला हो । ऐसे अड्डा जमा लेता हूँ । अहिंसा नामपर एक बड़ी विचित्र धारणा सर्वभक्षी चीन, जापान आदि देशों में पाई जाती है | अहिंसाका विनोदमय प्रदर्शन देख डा० रघुवीर, एम०
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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