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________________ २६६ जैनशासन विरक्ति है; इसीलिये साहित्यकी रचनाओं में लोकरुचिका लक्ष्य करते हुए उसमें आकर्षणनिमित्त श्रृंगारादि रसों का भी यथास्थान उचित उपयोग किया गया है, किन्तु वहाँ उस शृङ्गार तथा भोगको जीवनके लिए असार सहमश्री बता आत्मज्योति के प्रकाश में स्वरूपोपलब्धिकी ओर प्रेरणा की गई है, ऐसी स्थिति में यहाँ शृंगारादिरसोंकी मुख्यता नहीं रहती है । भवन्त गुणभद्र स्वामीने आत्म शासन में एक सुन्दर शिक्षा दी है - "बुद्धिशाली व्यक्तिको उचित है कि अपने मनरूपी बम्दरको श्रुतस्कन्ध-द्वारूप महान् वृक्ष में रमावे ।" यक्ति, ज्योतिष यादि विषयोंमें चित्त लगनेपर मनकी चंचलता दूर होती है। वह शान्त एवं निरुपद्रव हो जाता है । नत्रभी सदी में रचित महावीराचार्य के गणित सार-संग्रह में जैन दृष्टि से गणितशास्त्रपर मार्मिक प्रकाश डाला गया है । गणित ग्रन्थके विशेपक्ष प्रो० दत्त महाशयने इस गणित ग्रंथके विषय में लिखा है? त्रिभुज (Ra tional triangle) के विषय में विशेष बातोंको प्रकाशमें लानेका यथार्थम महावोर आचार्यको है। आधुनिक इतिहासवेत्ता भूलसे यह श्रेय उक्त आचार्य के पश्चाद्वर्ती लेखकों को देते हैं । दर्शन और न्याय के क्षेत्र में समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाषन्त्र, अनन्तवीर्य अभयदेव, वादिक्षेत्र, हेमचन्द्र मल्लिषेण, यशोविजय आदिको रचनाएँ इतनी महत्वपूर्ण हैं, कि उनका सम्यक् परिशीलन अध्येताको जैनशासनकी ओर आकथित किये बिना नहीं रहता। स्वामी समन्तभद्रकी रचनाएँ अपनी लोकोत्तरता तथा असाधारणताके लिए विख्यात है। उनका देवागमस्तोत्र fraके समस्त चिन्तकोंके लिए चिन्तामणिके समान हैं। विधानन्वि सदृश अनेक चिन्तकोने उस स्तोत्र के अनुशीलन के फलस्वरूप जैनशासनको स्वीकार किया। उस ११४ श्लोक प्रमाणस्तोत्रपर तार्किक तपस्वी अकलंकदेवने अष्टशती टीका आठ सौ श्लोक प्रमाण जनाई । उसपर आचार्य विद्यानन्दिने आठ हजार श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री नामकी विश्वातिशायिनी टीका बनाई। इस रचनाके विषय में स्वयं प्रथकार ने लिखा है१. "अनेकान्तात्मार्थ प्रसवफलभातिविनते वचः पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखागतयुते । समुत्तु सभ्यपततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनम् | " = -- आत्मानुशासन । १७० २. What is more inportant for the general history of mathema - tics, certain methods of finding solutions of rational triangles, the credit for the discovery of which should very rightly go to Mahavira, are attributed by modern historians, by mistake to writers posterior to him. -Bulletin Cal, Math. Soc. XXI 116,
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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