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________________ पुण्यानुबन्धो वाङ्मय "श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । स्वसमय पर समय सद्भावः ॥॥" विज्ञायते यव 'मथार्थ में सुनने योग्य शास्त्र तो हजारों शास्त्रों के श्रवणमें क्या सार है ? सिद्धान्त दया पर समय-अन्य सिद्धान्तोंका अवबोध होता है २६७ अष्टसही है। उसे सुनने के अनन्तर इस एक ग्रंथके द्वारा ही स्वसमय अपने ין भगवद्गीता की आज के युग में सुन्दर एवं तात्त्विक निरूपणके कारण बहुत प्रशंसा सुनने में आती है, इसी दृष्टिसे यदि हम मागमस्तोत्रपर विश्वार करें तो निष्पक्ष भाव से हमें गीताके समान विशेष गौरव देवागमस्तोत्रको प्रशन करना न्याय होगा, कारण उसमें त्रिविध दार्शनिक भ्रान्त धारणाओंकी दुर्बलताओं को प्रकट करते हुए समन्वयका असाधारण और अपूर्व मार्ग उपस्थित किया गया | जैन आचार्य परंपरामें समन्तभद्र स्वामीके पाण्डित्यपर बड़ी श्रद्धा तथा सम्मानकी भावना व्यक्त की गई है । आचार्य वीरमन्दि कहते हैं 1 "गुणान्विता निर्मवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा व भारती ॥" गुणान्वित- डोरायुक्त, निर्मल एवं गोल मुक्ताफल संयुक्त पुण्यात्माओं के द्वारा कण्ठमें धारण की गई हारयष्टि हो दुर्लभ नहीं है, किन्तु समन्तभद्रादि आचार्योंकी वाणी भी दुर्लभ है। कारण वह भी गुणान्वित-ओज, माधुर्य आदि गुणसम्पन्न है, वह भी निर्मलचरित्र मुक्तात्माओंके वर्णनसे युक्त हैं. महान् मुनीन्द्रों आदि उस सरस वाणी से अपने कण्ठको अलंकृत किया है । इसी प्रकार तामिल रचनाओंमें नोलकेशी नामका महान् विचारपूर्ण तथा दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाकर अहिंसा तत्त्वज्ञानकी प्रतिष्ठा स्थापित करनेवाला काव्य समयवियाकर वामन मुनिको टीका सहित राव बहादुर प्रोफेसर श्री ए० चक्रवर्ती एम० ए० मद्रास के द्वारा प्रकाश में आया है। उसमें भी तुलनात्मक पद्धतिसे सत्यकी उपलब्धिका सुन्दर प्रयत्न किया गया है। श्रीचक्रवर्तीकी ३२० पेजको भूमिका अंग्रेजी में छपी है। इससे तामिलसे अपरिचित व्यक्ति भी उसका रसास्वादन कर सकते हैं । जोचक विन्तामणि त्रिषष्ठिचरित्र, नन्नूल कनड़ीको उज्ज्वल जैन रचनाएँ मद्रास विश्वविद्यालय ने बी० ए० एम० ए० के क्रम में रखी हैं । जैन्ह प्रत्यकारोंने भाषाको भाव प्रकाशन करनेका साधनमात्र माना। इस कारण इन्होंने संस्कृतको हो देववाणी-विद्वानोंकी भाषा समझ अन्य भाषाओं के प्रति उपेक्षा नहीं को, प्रत्युत हर एक सजीव भाषा के माध्यम से वीतराग जिनेन्द्रant पवित्र देशनाका जगत् में प्रसार किया । वैदिक पण्डित संस्कृतके सौन्दर्य पर
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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