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________________ १४२ जनशासन ममत्त्व प्रकट करनेका विचित्र प्रयास करते हैं। डॉक्टर महाशयको दलील है कि "शंकराचार्य ने अपनी व्याख्या पुरातन जैन दृष्टिका प्रतिपादन किया है और इसलिए उनका प्रतिपादन जान-बूझकर मिथ्या प्ररूपण नहीं कहा जा सकता। जैनधर्मका जैनंतर साहित्यमें सबसे प्राचीन उल्लेख बादरायणके वेदान्त सूत्र में मिलता है, जिसपर शंकराचार्यको टीका है। हमें इस बातको स्वीकार करने में कोई कारण नजर नहीं आता कि जैनधर्मकी पुरातन दातको यह घोतित करता है । यह बात जैनधर्मको सबस दुर्बल और सदोष रही है। हाँ, आगामी कालमें स्याद्वादका दूसरा रूप हो गया, जो हमार आलोचकोंके समक्ष है और अब उसपर विशेष विचार करनेको किसीको आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।" स्थाद्वादकी डॉ बेलवलकरकी दृष्टिसे शंकराचार्यके समयतककी प्रतिपादना और आधुनिक रूपरेखामें अन्तर प्रतीत होता है । अच्छा होता कि पूनाके डाक्टर महाशय किसी जैन शास्त्रके आयारपर अपनी कल्पनाको सजीव प्रमाणित करते । जैनधर्मके प्राचीनसे प्राचीन शास्त्रमें स्पाद्वादके सप्तमंगोंका उल्लेख आया है ; अतः डाक्टर साहब अपनी तर्कणाके द्वारा शंकर और उनके समान आक्षेपकर्ताओंको विचारकोंके समक्ष निर्दोष प्रमाणित नहीं कर सकते । यह देखकर आश्चर्य होता है कि कभी-कभी विख्यात विद्वान् भी व्यक्ति-मोहको प्राधान्य दे सुदृढ़ सत्यको भी फूकसे उड़ानेका विनोदपूर्ण प्रयत्न करते है । जब तक जैन परम्परामें स्याद्वादको भिन्न-भिन्न प्रतिपादना बेलवलकर महाशय सप्रमाण नहीं बता सकते और जब है ही नहीं तब बता भी कैसे सकेंगे-तब तक उनका उद्गार साम्प्रदायिक संकीर्णताके समर्थनका सुन्दर संस्करण सुज्ञों द्वारा समझा जायगा। स्थाद्वाद जैसे सरल और सुस्पष्ट हृदयग्राही तत्त्व-ज्ञानपा सम्प्रदायमोहवश भ्रम उत्पन्न करने में किन्हीं-किन्ही लेखकोंने जनशास्त्रोंका स्पर्श किये बिना ही केवल विरोध करनेकी दृष्टिसे ही यथेष्ट लिखनेका प्रयास किया है। उन्होंने तनिक भी न सोचा कि सत्य-सूर्यको किरणोंके समक्ष भ्रमान्धकार कबतक टिकेगा। ऐसे भ्रम-जनक दो-एक लेखकोंकी बातोंपर हम प्रकाश डालेंगे । अन्यया स्थाद्वाद-शासनपर ही समय-ग्रन्थ पूर्ण हो जायगा। धो बलबेवजी उपाध्याय 'स्याद्वाद' शब्दके मूलरूप 'स्यात्' शब्दके विषयमें लिखते हैं—'स्यात्-(शायद सम्भव) शब्द 'मस्' धातु के विििलके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है।" परन्तु स्थात् शब्दके विषयमें स्वामी समन्तभद्रका निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य है "वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यम्प्रति विशेषकः । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केलिनामपि ।।" -आप्तमीमांसा, १०३
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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