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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद १४३ यहाँ स्यात् पान्दको अनेकान्तको ग्रोतित करनेवाला बताया है, वह निपातरूप (indeclinable) शब्द है । पशास्तिकासको टक लान् भरि कहते हैं "सर्वशास्त्र-निषेधकोऽनेकान्तप्ता-रोतकः कब्रिदर्थे पारछयो निपात:"स्यात् शब्द निपात है, वह सर्वधापनेका निषेधक, अनेकान्तपनेका द्योतक, कश्चित् अर्थवाला होता है । एक पान्दके अनेक अर्थ होते हैं । संघषका नमकरूप अर्थके साथ घोड़ा भी अर्थ होता है । प्रकरण के अनुसार वक्ताको दृष्टिको ध्यानमें रख उचित अर्थ किया जाता है । इसी प्रकार स्थात् शब्दका प्रस्तुत प्रकरणमें अनेकान्त द्योतकरूप अर्थ मानना उचित है । अष्टसहस्रोकी टिप्पणी (प० २८६) की निम्न पंक्तियां भी इस विषय में ध्यान देने योग्य है "बिध्यादिष्वर्थेष्वपि लिङ्लकारस्य स्यादिति क्रियारूपं पदं सिद्ध्यति, परन्तु नायं स शब्दः, निपात इति विशेष्योक्तत्वात् ।" स्याद्वाद विद्याको महत्त्वपूर्ण मान आजका शोधक चुसार जब उसे जैनधर्मको संसारको अपूर्व देन समझने लगा, तब स्यावाद सिद्धान्तपर एक नवीन प्रकारका मधुर आरोप प्रारम्भ हुआ है 1 अतः स्पात् शब्दका अर्थ शायर नहीं है किन्तु एक सुनिश्चित दृष्टिकोण है।' बौद्ध भिक्षु श्रीरामानोने अपने दर्शन-विदर्शनमें अन्य कतिपय लेखकोंका अनुकरण करते हुए सामञ्चफलसुत्त नामक अपने सम्प्रदायके शास्त्राधारपर संजयलट्ठि पुत्तके मुखरो जो कहलाया है कि-"मत्पिति पि नो, नस्थिति पि नो, अस्यि च नत्यिक लिपि नो, नेवत्यि नो स्थिति पिनो।" मैं उसे इस रूपमें नहीं मानता, में उसे अन्य रूप भी नहीं कहता, मैं इस रूप तथा अन्य रूप भो नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि वह इस रूप और अन्य रूप नही है । इसमें स्याद्वादके बीज उन्हें विदित होते हैं। प्रो. प्र बजोने भी इस विषयमें संकेत किया है, किन्तु उनके लेखमें राहुलजीको भाषाका अनुकरण न कर सौजन्य और शालीनताका पूर्णतया निर्वाह किया गया है । उपर्युक्त अवतरणमें स्याद्वादके बीज मानना कांचकी आँस्तको वास्तविक आँस मानने के समान होगा। स्याद्वादकी सुदृढ़ और सत्यकी नीवपर प्रतिष्ठित तर्कसंगत शैली और पूर्वोक्त अवतरणको शिथिल तर्कविरुद्ध विचारधाराओंमें सजीव और निर्जीव सदृश्य अन्तर है। सञ्जयवेलाट्टपत्तका वर्णन एकान्त अनिर्वचनीयवादकी ओर झुकता है, जो कि अनुभव और तर्कसे बानित है । आचार्य विद्यानम्बि इस प्रकारको दृष्टि पर प्रकाश हालते हुए लिखते हैं कि-वस्तुको सद्भावरूप तथा असद्भावरूप भी न कहनेपर
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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