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________________ जेनशासन राग अथवा स्नेहके कारण ही यह जीव अपने अनस, अक्षय आनंदके भण्डारसे वंचित हो दुःखमम संसारमे परिभ्रमण करता है। इस विषयको स्पष्ट करने के लिये आचार्य तिलके उदाहरणको कितनी सुन्दरताके साथ उपस्थित करते हैं देखो ! तिलोंका समुदाय स्नेह (तेल) के कारण जलसिंचन, परोंके द्वारा कुचला जाना, एवं पुनः पले जानेको पीडाका अनुभव करता है । स्नेह शब्द ममता तथा तेल इन दो अोंको द्योतित करता है । उनको ध्यानमें रखते हुए ही आचार्य महाराज समझाते हैं कि जैसे स्नेहके कारण तिलोंका कुचला जाना तथा पेले जाने का कार्य किया जाता है, इसी प्रकार स्नेहके कारण यह जीव संसारको अनंत दुःखाग्निमें निरंतर जला करता है।' अपने कृत्योंके विपासका उत्तरदायित्व प्रत्येक जीव पर है, अन्य व्यक्ति इसमें हिस्सा नहीं बटाते; इस सिद्धान्तको स्पष्ट करते हुए कवि कहते हैं-- "हे जीव ! पुत्र. स्त्री आदिक निमित्त लाम्खों प्राणियोंकी हिंसा करके तू जो दुष्कृत्य करता है, उसके फलको एक तू ही सहेगा।' ___ आजके युगमें उदारता, समता, विश्वप्रेम आदिके मधुर शब्दोका उच्चारण करते हुए अपनी स्वार्थपरताका पोषण बड़े बड़े राष्ट्र करते हैं, और करोड़ों क्ष्यक्तियों के न्यायोचित और अत्यन्त आवश्यक स्वत्त्वों का अपहरण करते है, उनको इस उपदेशके दर्पणमें अपना मुख देखना श्रेयस्कर है। कधि आत्माके लिए कल्याणकारी अथवा विपत्तिप्रद अवस्थाके कारणको बताते हुए साधकको अपना मार्ग चुननेको स्वतन्त्रता देते हैं और कहते है 'देखो ! जीवोंके बघसे तो नरकगति प्राप्त होती है, और दूसरोंको अभयपद प्रदान करनेसे स्वर्गका लाभ होता है । ये दोनों मार्ग पास में ही बताये गये हैं । 'जहिं भावह तहिं लगा'-जो बात तुम्हें रुचिकर हो, उसी लग जाओं'। कितना प्रास्त और समुज्ज्वल मार्ग बताया है। जो जगतको अभय प्रदान १. "जलसिंचणु पणिद्दलणु, पुणु पुणु पौलण दुबखु । हह लग्गवि सिलणिया, जति सहतउ पिक्खु।।२४६॥" २. "मारिषि जीवह लक्खडा, जं जिय पार करीसि । पुत्तकलत्तहं कारणई, तं तुई एक सहोसि ॥२५५।।" -परमात्मप्रकारात ३. "जीय वर्घतह गरयगइ, अमरपदाणे सग । बेपह जबला दरिसिया, जहिं भावइ तहिं लागु ॥२५७।।"
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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