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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७३ प्राची दिशाको अरुण वर्णयुक्त देख उसे जिनेन्द्र चरण कमलकी लालिमासे अनुरजित सोचता था, और अपने प्रकाश द्वारा रात्रिके अन्धकार के उन्मूलनकारी सूर्यको देखकर उसे भगवान वृषभना यः कैवल्य सूर्यकी प्रतिबिम्बसे कल्पना करता था । वह जागते ही धर्मजोंके साथ धर्मके विषयमें अनुचिंतन करता था चात् अर्थ-काम-संपत्ति के विषयमें अमात्य वर्गके साथ विचार करता था। जहां वैभवको वृद्धि में साधारण मानव आत्माको पूर्णतया भूलकर कोल्हू के बैलफी जिन्दगीका अनुकरण करता है, वहां तत्वज्ञानी सम्राट् सदा धर्मकी प्रधान चिन्ता करते थे, कारण उसमें विचक्षणको विलक्षण आह्लाद प्राप्त होता है। इसके सिवाय उस मंगलमय धर्मकी शरण में जानेसे सर्व कार्योंकी अनायास सिद्धि भी होती है । हो लिये भरतेश्व र विषय में महापुराणकार कहते हैं "तथापि बहुचिन्त्यस्य धर्मचिन्ताऽभवद् दृढा । धर्मे हि चिन्तिते सर्वं चिन्त्यं स्यादनुचिन्तितम् ॥ ११४, ४१ ।। प्रजापति नरेशकी धार्मिक अनुरक्ति के कारण जनतामें भी सदाचरणका विकास तथा धार्मिक जागृति अनायास होतो थी । यदि यह दुष्टि जनताके भाग्यविधाताओंके जीवन में अवतरित हो जाय, तो आजका संकटमय तथा कलंकपूर्ण संसार नवीन कल्याणभूमि बन सकता है । अपभ्रंश भाषाके सुन्दर शास्त्र 'परमात्मप्रकाश' में योगीन्द्रदेव लिखते हैं'शरीर-मन्दिर में जो आदि तथा अन्तरहित एवं केवलज्ञानरूप ज्योतिर्मय आत्मदेव विद्यमान है, वही यथार्थ में परमात्मा है । २ परमार्थ दृष्टिको प्रधानाने आचार्य कितनी मार्मिक बात कहते हैं-mera ! अन्य तीर्थोंको यात्रा मत करो। अन्य गुरुको सेवा भी अनावश्यक है। अन्य देवका चितन भी न करो। केवल अपनी निर्मल आत्माका ही आश्रय लो।' आचार्य कहते हैं--"यह आत्मा हो तो परमात्मा है। कर्मोदय के कारण वह आराध्य के स्थान में आराधक बनता है। जब यह आत्मा अपनी ही आस्मा मे स्वरूपका दर्शन करने में समर्थ होता है, तब यही परमात्मा हो जाता है ।" तु । · के वाणपुरं तत्तणु सो परमप्पु गितु 11 " - ५० प्र० ३३ । २. "अष्णुजि तित्यु में जाहि जिय, अपणु जि गुरु म सेबि । अण्णु जि देउ म विति तुहुं, अप्पा विमलु मुवि ||१६|| " ३. "एहु जु अप्पा सो परमप्पा कम्मविसेसे जायउ जया । जाम जाणइ अध्ये अप्पा, सामई सो जि उ परमप्पा ॥ ३०५ ॥ " १८ १. "देहा वेथलि जो वसड, देउ अणा r
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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