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________________ २१३ इतिहासके प्रकाशमें तार्किक जैन आचार्य सिक्षसेन कहते हैं-प्राचीनताका कोई अवस्थित रूप नहीं है । जिसे हम आज नान कहते हैं, कुछ कालक पोत होने पर उसे ही हम प्राचीन कहने लगते हैं । उनका तर्क यह है "जनोऽयमन्यस्य मतः पुगतनः पुरातनैरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनस्थितेषु कः पुरातनोश्वान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ।।" मरनेके अनन्सर अन्य पुरुषों के लिए हम भी प्राचीन हो जायेंगे और प्राचीनोंके सदश हो जायेंगे। ऐसी मितिमें प्रातनता कोई अवस्थित वस्तु नहीं रहती; अतएव पुरातन तथा नवीनका परीक्षण करके अंगीकार करना चाहिए । जैन तस्वन्नाम समीचीन तथा तर्काबापित होनसे मुमुक्षु के लिए वंदनीय है । प्राचीनतारे साथ सत्यका सम्बन्ध सोचनेवाले सभ्योंके लिए भी जैन सिद्धान्त माननीय है । भारतवर्ष में विदेशी शामन आनेपर जो पूर्व में पुरातत्त्वज्ञोंने खोज की थी, वह आजके विशिष्ट विकसित अध्ययनके उज्ज्वल भालोकमें केबल मनोरंजनकी वस्तु है. कारण सत्य प्रकाश में उसका कुछ भी मूल्य विदित नहीं होता । एलफिन्सटन नामक 'ग्रेज अपनी भारतीय इतिहासको पुस्तकमें लिखते हैं"जैनधर्म छठवीं या मातवीं ईसवी में उत्पन्न हुआ।" इस परंपराका अनुगमन टामस, देवर, जोस, मुल्ला आदि अनेक विद्वानों ने किया । इस विचारके आधार. पर जैनधर्मकी ऐतिहासिकताके विष यम बहुत भ्रम उत्पन्न हुआ; किन्तु आधुनिक शोध ने जनधर्मको अत्यन्त प्राचीन माननेकी अकाट्य सामग्री उपस्थित कर दी है : मेगस्थनीजके लेखोसे इस बातपर प्रकाश पड़ता है कि ईसवी सनसे चार सौ वर्ष पूर्व बड़े-बड़े नरेवा अपने विश्वासपात्र लोगोंको जैन श्रमणों-मनियों के पास भेजकर उनसे अनेक विषयोंपर प्रकाश प्राप्त किया करते थे । अजमेर के पास बडाली काममें एक जैन लेन' वीरनिर्वाण संवत् ८४ अर्थात् ईसवी सन् से ४४३ वर्ष पूर्वका महामहोपाध्याय राव गोरोशंकर हीराचन्द लोमाने स्वीकार किया है। इससे ज्ञात होता है कि माणसे लगभग २४०० वर्ष ! "The Jains appear to have originated in the 6th or 7th century of our era......" History of India P. 121, 2. "We also know from the fragments of Magesthenes that so late as the 4th century B. C. the Sarmanas or the Jain asce tics who lived in the woods were frequently consultecl by the kings through their messengers regarding the cause of things",-- Jain Gazette Vol. XVI. p 216. ३. "शीराच भगवते चप्ससीतिवसे कार्य जालामालिनिये रनिविठ मझिमिके"
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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