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________________ २१२ जैनशासन त्रिभुवनवंदित तीधंकर-पद प्राप्त करनेवाले आत्माको कितनी उम्चको टिकी साधना आवश्यक होती है । जैन आगममें कहा है-कोई भी समर्थ मानव अपनो साधनाके द्वारा तीर्थकर बनने योग्य पुग्यका सम्पादन कर सकता है । इस प्रकार योग्यकालको प्राप्त कर साधक अपनी साधनाके पथमें प्रगति करता रहता है। मोहान्धकार और प्रमादको दूर कर आत्मजागरणकी ओर उन्मुख हो सात्त्विक वृत्तियोंको विकसित करना तत्त्वज्ञों का कर्तव्य है। चतुर साधक अनुकूल कालको प्राप्त कर अपने साध्यकी प्राप्ति निमित्त हृदयसे उद्योग करता है। इतिहासके प्रकाश में पुरातत्त्व प्रेमियोंका प्राचीन वस्तुपर अनुराग होना स्वाभाविक है, किन्तु किसी दार्शनिक विचार प्रणालीको प्राचीनताके हो आधारपर प्रामाणिक मानना समीचीन नहीं है। ऐसा कोई सर्वमान्य नियम नहीं है, कि जो प्राचीन है, वह समीचीन तथा यथार्थ है और जो अर्वाचीन है, वह अप्रामाणिक ही है। असत्य चोरी, लालच आदि पापोंके प्रचारकका पता नहीं चलता, अतः अत्यन्त प्राधीनताकी दृष्टि से उनको कल्याणकारी माननेपर बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न हो जायगी । प्राचीन होते हुए भी जीवनको समुज्ज्वल बनाने में असमर्थ होने के कारण जिस प्रकार चोरी आदि त्याज्य है, उसी प्रकार प्रामाणिकताकी कसौटी पर खरे ने उतरनेके कारण प्राचीन कहा जाने वाला तत्त्वज्ञान भी मुमुक्षुका पथ-प्रदर्शन नहीं करेगा। कामिदासने कितनी सुन्दर बात लिखी है "पुराणमित्येव न साधु सवं न चापि नूनं नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ।।" प्राचीन होने मात्रसे सभी कुछ अच्छा नहीं कहा जा सकता और न नवीन होनेके कारण सदोष हो । सत्पुरुष परीक्षा कर योग्यको स्वीकार करते है किन्तु बज्ञानी दूसरेके मानके अनुसार अपनी बुखिको स्थिर करते है–थे स्वयं उचितअनुचित वातके विषय में विचार नहीं करते ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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