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________________ कर्मसिद्धान्त १६३ I के बीज विषे एक वटको वृक्ष है, सो वृक्ष जैसो कछु भाविकाल होनहार है तैसा विस्तार लिये विद्यमान वामैं वास्तव रूप छतो है, अनेक शाखा प्रशाखा पत्र पुष्प फल संयुक्त है, फल फल विषे अनेक बीज होंहि । या भौतिक अवस्था एक वटके बोज दिषै विचारिये । और भी सुक्ष्म दृष्टि दीजं तो जे जे वा वट वृक्ष विषे बोज है ते ते अन्तर्गभित वट वृक्ष संयुक्त होहि । याही भाँति एक चट विषै अनेक अनेक बीज, एक एक बीज विषे एक एक वट, ताको विचार कीजे तो भाविनय प्रधान करि न वटवृक्षन का मर्यादा पाइए न बीजनि की मर्यादा पाइए। याही भाँति अनन्ततातकी स्वरूप जाननी । ता अनंतता के स्वरूपको केवलज्ञानी पुरुष भो अनन्त ही देखें जागे कहे-अनन्तका और अंत है हीं नाहीं जो ज्ञान विषे भासे । तातें अनन्तता अनंत ही रूप प्रतिभासं या भाँति आगम अध्यातमकी अनंतता जाननी ।" स्वामी प्रकाश डालते है- ₹ बनारसीविलास, पृ० २१९ । विषयमें "कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः । तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ॥" कामादिकी उत्पत्ति रूप जो विविधतामय भाव संसार है, वह अपने-अपने कर्मबन्धनके अनुसार होता है। वह कर्म रागादि कारणोंसे उत्पन्न होता है । वे जीव शुद्धता और मशुद्धता से समन्वित होते हैं । इस विषय में टीकाकार आचार्य विद्यानग्दि अष्टसहस्री में लिखते है कि"अज्ञान, मोह, अहंकार रूप जो भाव संसार है, वह एक स्वभाववाले ईश्वरको कृति नहीं है; क्योंकि उसके कार्य सुख-दुःखादिमें विचित्रता पाई जाती है। जिस वस्तु कार्यमें विचित्रता पाई जाती है वह एक स्वभाववाले कारणसे उत्पन्न नहीं होती । जैसे धान्यांकुरादि अनेक विचित्र कार्य अनेक शालिबीजादिसे उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सुखदुःखादि विचित्र कार्यमय यह संसार है । वह एक स्वभाववाले ईश्वरकी कृति नहीं हो सकता । कारणके एक होनेपर कार्य में विविषता नहीं पाई जाती। एक घान्य बीजसे एक ही प्रकारके घान्य अंकुरको उत्पत्ति होगी। जब इस प्रकार नियम है तब काल, क्षेत्र स्वभाव, अवस्थाकी अपेक्षा भिन्न शरीर, इन्द्रिय यदि रूप जगत्का कर्त्ता एक स्वभाववाले ईश्वरको मानना महान् आश्वर्यप्रद है । "" १. देखो, पू० २६८ से २७३ पर्यन्त अष्टसहस्री |
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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