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________________ जैनभासन यहां एक स्वभाववाले ईश्वरको कृति, यह विविधतामय जगत् नहीं बन सकता, इतनी बात तो स्पष्ट हो जाती है। किन्तु, मह कर्म विविधतामय आन्तरिक जगतका किस प्रकार कार्य करता है, यह बात विचारणीय है। कारण, कोई व्यक्ति अम्घा है, कोई लंगड़ा; कोई मूर्ख है, कोई बुद्धिमान; कोई भिखारी है, कोई घनधान् ; कोई दासार है, कोई कंजम ; कोई उन्मत्त है, कोई प्रबुद्ध : कोई दुर्बल है तो कोई शक्तिशाली । इन विभिन्न विविषताओंका समन्वय कर्मसिद्धान्तके द्वारा किस प्रकार होता है ? कुनकुन्द स्वामो इस विषयका समाधान करते हुए लिखते हैं कि जिस प्रकार पुरुषके द्वारा खाया गया भोजन जठराग्निके निमित्तसे मांस, घरबी, रुघिर आदि रूप परिणमनको प्राप्त होता है, उसी प्रकार यह जीव अपने भावोंके द्वारा जिस कर्मपुञ्जको-कार्माण वर्गणाओंको प्रहण करता है ल नका, इसके तीव्र, मन्द, मध्यम कषायके अनुसार विविध रूप परिणमन होता है। पूज्यपाव स्वामी भो इस सम्बन्धमें भोजनका उदाहरण देते हुए समझाते है कि जिस प्रकार जठराग्निके अनुरूप आहारका विविध रूप परिणमन होता है, उसी प्रकार तीव, मन्द, मायके मनुके बजाय स्थितिय विशेषता आती है । इस उदाहरणके द्वारा प्राकृत विषयका भलीभांति स्पष्टीकरण होता है कि निमित विशेषसे पदार्थ कितना विचित्र और विविध परिणमन दिखाता है । हम भोजनमें अनेक प्रकारके पदार्थों को ग्रहण करते है । वह वस्तु इस्लेष्माशयको प्राप्त करती है, ऐसा कहा गया है । पश्चात् द्रव रूप धारण करती है, अनन्सर पित्ताशयमें पहुंचकर अम्लरूप होती है। बादमें वाताशयको प्राप्त कर वायुके द्वारा विभक्त हो खल भाग व्या रस भाग रूप परिणत होती है। स्खल भाग मलमूत्रादि रूप हो जाता है और रस भाग रक्त, मांस, घरबी, मज्जा, बीर्य रूप परिणत होता है। यह परिणमन प्रत्येक जीवमें भिन्न-भिन्न रूपमें पाया जाता है। स्थूल रूपसे तो रक्त, मांस, मज्जा आदिमें भिन्नता मालूम नहीं होतो किन्तु सूक्ष्मतया विचार करनेपर विदित होगा कि प्रत्येकके रक्त आदिमें व्यक्ति की जठराग्निके अनुसार भिन्नता पाई जाती है। भोज्य वस्तु समान काणिवर्गगा इस जीवके भावोंकी तरतमताके अनुसार विचित्र रूप धारण करती है । इस कर्मका एक विमाग झानावरण कहलाता है, जिसके उदय होनेपर १. "नह पुरिसेणाहारो पहिलो. परिणमइ सो अणेयनिह । मंसवसारुहिरादिभाये उयरगिसंजुत्तो ॥"...समयप्राभूत १७१ । २. "जठरान्मनुरूपाहारग्रहणवत्तोत्रमन्दमध्यमकषायानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रति पत्त्यर्थम् ।" -स. सि०७॥२ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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