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________________ कर्मसिद्धान्त आत्माफी ज्ञानज्योति बैंक जाती है और कभी न्यून, कभी अधिक हया करती है। इस कर्मकी तरतमताके अनुसार कोई जीव अत्यन्त मुर्ख होता है तो कोई चमत्कारपूर्ण विद्याका अधिपति बनता है । कमसे कम ज्ञान-शक्ति दबकर एकेन्द्रिय जीवोंमें अक्षरके अनन्त भागपनको प्राप्त होती है और इस सानायरानी हांकनेवाले कर्मके दूर होनेपर आत्मा सर्वज्ञताकी ज्योतिरो अलंकृत होता है। जगत् बोद्धिक विभिन्नताका कारण यह मानावरण कर्म है। आत्माको दर्शनशक्तिपर आवरण करने वाला दर्शनावरण कर्म है। इस जीवको स्वाभाविक निर्मल आत्मीय आनन्दसे वंचित कर अनुकूल अथवा प्रतिकूल पदार्थो में इन्द्रियों के द्वारा सुख-दुःखका अनुभव करानेवाला वेदनीय कर्म है। मदिराको पानवाला व्यक्ति ज्ञानवान होते हुए भी उन्मत्त बन उस्पषगामी होता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्मरूप मद्य के ग्रहण करनके कारण अपनी आत्माको भूल पुद्गल तस्वमें अपनी आत्माका दर्शन कर अपनैको समझनेका प्रयत्न नहीं करता । यह मोहकर्म कर्माका राजा कहा जाता है। दृष्टिमें मोहका अमर होनेपर यह जीव विपरीत दृष्टिवाला बन शारीरको आत्मरूप और आत्माको शरोररूप मानकर दुखी होता है। इस मोहके फन्देम फैसा हया अभामा जीव अपने भविष्यका कुछ भी ध्यान न रस इन्द्रियोंके आदेशानुसार प्रवृत्ति करता है। कभी-कभी यह दोखतरामजीके शब्दोंम 'सुरतरु जार कनक बोवत है' और बनारसवासबोकी उद्घोषक वाणीमें यह "कायासे विचारि प्रीति माया हीमें हार जोति, लिये हठ-रीति जैसे हारिलकी लकरी। र्चुगुलके जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि, त्यों हो पाय गाडे पे न छांडे टेक पकरी ॥ मोहको मरोर सों भरमको न ठोर पावे, धावै चहूँ ओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी। ऐसी दुरबुद्धि भूलि झूठके झरोखे झुलि, फुली फिर ममता जजीरन सों जकरी ॥३७॥" -नाटक समयसार, सर्वविशुविद्वार। घडीमें मर्यादित कालके लिए चाभी भरी रहती है। मर्यादा पूर्ण होनेपर घडोकी गति बन्द हो जाती है। इसी भांति आयु नामके कर्म द्वारा इस जीवको मनुष्य, पशु-पक्षी आदि मोनियोंमें नियत काल पर्यन्त अवस्थिति होती है। काल-मर्यादापूर्ण होनेपर जीव क्षण भर भी उस शरीरमें नहीं रहता । इस आयु
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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