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________________ १६६ जैनशासन कर्मके कारण ही यह जीव जन्म-मरणका खेल खेला करता है। इस रहस्यको न जानकर लोग जीयनको ईश्वरकी दया और मृत्यको परमात्माकी इच्छा कह दिया करते है। किन्तु परमात्माके साथ जगत् भरके प्राणियोंक जीवन तथा मरणका अकारण सम्बन्ध जोड़ना उस सच्चिदानन्दको संकटोंके सिन्धुमें समा देने जैसी बात होगी। मथार्थमें यह आयु कर्म है जिसके अनुसार यह जीवनको पड़ी जब तक चाभी भरी रहती है चलती है। विष, वेदना, भय, शस्त्रप्रहार, संक्लेश आदिके कारण यह घड़ी पहिले भी बिगड़ सकती है । इमौका परिणाम अकालमरण कहलाता है । इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व में निर्धारित पूर्ण आयुको भोगे बिना कारण-विशेषसे अस्पकालमें प्राणोंका विसर्जन कर देना अकाल-मरण है। अकाल-मरण द्वारा आयुमें कमी तो हो जाती है पर प्रयत्न करनेपर भी पूर्व निश्चित आयुमें वृद्धि नहीं होती । इसका कारण घडीकी चाभीसे ही स्पष्ट झात किया जा सकता है। इस मायुके प्रहारको कोई भी नहीं बचा सकता । आस्मदर्शन, आत्म-बोध और आत्म-निमग्नता इम रत्नत्रय मागंसे हो आत्मा मृत्यु के चक्रसे बच सकता है। अन्यथा प्रत्येकको इसके आगे मस्तक झुकाना पड़ता है । विश्वकी सारी शक्ति और सम्पूर्ण शक्तिशालियोंकः सहयोग भी क्षण-भरके लिए निश्चित जीवनमें वृद्धि नहीं कर सकता। प्रबुद्ध कवि कितनी मार्मिक बात "सुर असुर खगाधिप जेते । मृग ज्यों हरि काल दलते । मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई । मरतें न बचावै कोई ।।" -दौलतराम-छहढाला। जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रंगोंके योगसे सुन्दर अथवा भीषण आदि चित्रोंको बनाया करता है, उसी प्रकार नामकर्म-रूपी चितेरा इस जीवको भले-बुरे, दुबले-पतले, मोटे-ताजे, लूले-लेगड़े, कुबडे, सुन्दर अघवा सड़े गले शरीरमें स्थान दिया करता है । इस जीवको अगणित आकृतियों और विविध प्रकारके शरीरोंका निर्माण नामकर्मको कृति है । विश्वकी विचित्रतामें नाम-कमरूपी वितरेकी कला अभिव्यक्त होती है। शुभ नाम-कर्मके प्रभावसे मनोज्ञ और सातिशय अनुपम शरीरका लाभ होता है । अशुभ नाम-कर्म के कारण निन्दनीय बसुहावनी शारीरिक सामग्री उपलब्ध होती है । जो लोग जगत्का निर्माता किसी विधाता या स्रष्टाको बताते है, यथार्थमें वह इस नामकर्मक सिवाय और कोई दूसरी वस्तु नहीं हैं। भाचार्य भगवजिनसेमने 'इस नाम कर्मको ही वास्तविक ब्रह्मा, स्रष्टा लयवा यिघाता कहा है ।" एकेन्द्रियसे लेकर १. "विधिः स्रष्टा विधाता व दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरस्वेति पर्यापा विशेयाः कर्मवेधसः ।।"-महापुराण ३७।४।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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