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________________ इतिहासका प्रकाशमें २२५ अत्यधिक समर्थन हुआ है। वे इस बातके स्पष्ट और अकाट्य प्रमाण है कि जैनधर्म प्राचीन है और वह प्रारंभ में भी दर्तमान स्वरूपमें था। ईस्वी सन्के प्रारंभमें भी चौबीग तीर्थकर अपने-अपने चिह्न सहित निश्चयपूर्वक माने जाते थे।" ____ जब स्मिथ सदृश प्रकाण्ड ऐतिहासिक विद्वान् जनपरंपराके प्रतिपादनसे अविरुद्ध सामग्री को देखकर उसे अकाट्य कहते हैं तब ऐतिहासिक क्षेत्रमें विज्ञ पुरुषोंका जैन मान्यताओं को उचित भावर प्रदान करना चाहिए। जैनवाङ्मयको शब्दावली आदिमें कुछ साश्य देखकर कोई कोई लोग जैन और बौद्ध धर्मोको अभिन्न समझा करते थे, किन्तु अर्वाचीन शोष दोनों धर्मोको भिन्नताको पूर्णतया स्पष्ट करती है । संवत १०७० मे रचित अपने 'धर्मपरीक्षा' नामक संस्कृत ग्रन्थमें अमितगति आचार्य कहते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथके शिष्य मोडिलायन नामक तपस्वीने वीर भगवानसे' रुष्ट होकर बुद्ध दर्शन स्थापित किया और अपने आपको शुद्धोदनका पुत्र वुद्ध परमात्मा कहा ।' __ जैन और बौद्ध साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विमेषज्ञ डाक्टर विमलचरण लाने बताया है कि-कच शब्द जैन वाङमयमें जिस अर्थमें प्रयुक्त होते है, उन शब्दोंको बौद्ध साहित्य में अम्प अर्थ में लिया गया है । कुछ जैन शब्द बौद्धोंमें नहीं पाये जासे हैं। जैसे आकाशका जो भाष जैनोंने ग्रहण किया है, उसका बौद्ध ग्रंथों में अभाव है। जोद पान्दका अर्थ जनों में सचेतन किया गया है। बौद्धोंमें उसे प्राणवाची कहते हैं | जैन शास्त्रों में आसवको अर्थ है कम के आगमनका द्वार, किन्तु बौद्ध शास्त्रोंमें उसे 'पाप' का पर्यायवाची कहा है । जैनियोंके समान बौद्धोंमें निर्जराका भाव नहीं है। पूर्ण स्वतंत्रताका घातक 'मोवस्त्र' का बौद्धोंमें अभाव है। सावन, स्थिति, विधान आदि जैनियों की बातें बौद्ध साहित्यमें नहीं हैं। 'श्रावक' का अर्थ जैनिया में गृह स्थ होता है । बौद्ध 'भिक्खू' को श्रादक कहते हैं । 'रत्नत्रय' का भाव दोनों में जुदा-जुदा है । जैनशास्त्रों में जैसा षड्दव्योंका वर्णन है, वैसा बौद्ध साहित्यमें नहीं है । इन शब्दोंके अर्थोपर गंभीर विचार करते हुए डॉ० कोवीने एक महत्त्वपूर्ण शोध की, कि "भासव', 'संवर' सदश्य शब्दोंका जैन साहित्यमें मूल अर्थमें उपयोग हुआ है और १, "रुष्टः धोवीरनाथस्य तपस्वी मोडिलायनः । शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुधदर्शनम् ।। शुद्धोधनसूतं बुद्धं परमात्मानमवयीन् ।। अ० १८।" 2. "Vide–The Introduction to BHAGAWAN MAHAVIRA AURA MAHATMA BUDDHA. १५
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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