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________________ कमसिद्धान्त सूकम-पलेशका मूल कर्माशय-वासनाको बताया है। वह कशिम इस लोक . . और परलोको अनुभवमें जाता है। हिम्बू जगसके. दष्टिकोण को पुलसीरासनी इन शन्नों में प्रकट करते है "कर्मप्रधान विश्व करि गया। जो जस करहि सो तस फल चाखा) इस प्रकार भारतीय दार्शनिकोंके कर्मपर विपोध विचार व्यक्त हुए है। जैन सिद्धान्तमें इस कम विज्ञानपर जो प्रकाश गला गया है वह अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता। यहाँ फर्म-विज्ञान ( Philosophy ) पर बहत गम्भीर, विवाद, वैगानिक चिन्तना की गई है। जैकोवीने जैन कर्म सिद्धान्तको अत्यन्त महास्पद कहा है। कर्म यादका उल्लेख अथवा माममात्रका वर्णम किती सम्प्रदायकी पुस्तकों में पढ़ कोई-कोई आधुनिक पति कर्म-सिवान्तके बीज मंतर साहित्यमें सोचते है। किन्तु, जैन वाहमयके कर्म-साहित्य नामक विभागके अनुः शीलनसे यह स्पष्ट होता है कि जन-आगमकी यह मौलिक विथा रही है। बिना कर्म सिदान्त के न शास्त्रका दिवेशन पंग हो जाता है। विवरको का माननेवाले सिद्धान्त भगवान के हापमें अपने भाग्यकी और सौंप विश्व-विन्य पादिके लिए किसी अन्य शक्तिका वर्णन करना तर्फकी दृष्टिस आवश्यक नही मानत मोर यथार्पमें फिर उन्हें आवश्यकता रह भी बों आए ? न-सिधान्त प्रस्मेक प्राणीको अपना भाग्यविधाता मानता है, तब फिर बिना ईश्वरकी सहायता विश्वको विविधताका व्यवस्थित समाषान करना जैन दार्शनिकों के लिए अपरिहार्य है । इस कर्म-तत्व ज्ञान द्वारा वे विश्वचित्र्यका समाधान त निकूल पसतिसे करते है। कर्मको बाधन नामकी एक अवस्थाका वर्णन करनेवाला तथा बालीस हजार लोक प्रमाण पाला "महाबम्ध" नामका जन अन्य प्राकृतभाषामें अभी विद्यमान है। इस पंचगजके संपादनका मुयोग लेखकको मिला है। प्रथम प्राण्ड हिन्दी अनुवाद सहित भारतीय ज्ञानपीठस छपा है । इस प्रकार कर्मक विस्यमें विशद मानिन. जैन विवेचनाके सार पूर्ण अंशपर ही यहाँ हम विचार कर सकेंगे । जैनाचार्य बतास है शि-आरमाके प्रदेशोंमें कम्पन होता है और जम कम्पनसे पुदगल (Mattrr) का परमाणु-युज झाकषित होकर आत्माके साथ मिल जाता है, उसे फर्म कहत है। प्रवचनसारफे टीकाकार ममत मामा सूरि लिखत है-"मात्मा द्वारा प्राप्य होने से कियाको कर्म कहते है। १. "क्लेवामूल: पाशिय:, दृष्टादृष्टजन्ममेवनीयः।" -२-१२ । २, "क्रियया सल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, सम्मिमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म ।"-प्रवचनसार टी. २-२५ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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