SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रबुद्ध-साधक वे प्रेथ सदृश ब्रानको सामग्री, शोचसम्बन्धी कमण्डलु एवं जीवदया निमित मयूर पंखोंसे बनी हुई पिटीको विवेकपूर्वक अहिंसात्मक रीतिसे उठाते-घरते हैं । मलमूत्रादिका जन्तु-रहित भूमिमें परित्याग करते हैं "शुचि ज्ञान संजम उपकरन लखि के गहैं लखि के धरें। निजन्तु थान विलोकि तन मल-मूत्र-श्लेषम परिहर ।।" वे पांचों इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वैपका परित्याग करते हैं। केश बढ़नेपर मस्तकमें जूं आदिकी उत्पत्ति होती है और फेशोंको कटाने के लिए नाई आदिको आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए अर्धकी अपेक्षा होगी। केशोंको बिना कटाए जीवों का सद्भाव या तो ध्यानमें विघ्न उत्पन्न करेगा अथवा उनके खजाने आदिसे उनका घात होगा । उत्कृष्ट अहिंसा, अपरिग्रह और स्वावलम्बी जीवनके रसानिमित्त शरीरके प्रति निर्मम हो व कम-से-कम दो माह और अधिक-सेअधिक चार भावे भीतर अपने केशोंका अपने हाथोंसे लोंच करते है । आत्मधलकी वृद्धि होनेके कारण वे साधु प्रसन्नतापूर्वक अपने केशोंको घासके समान उखाड़ते हैं। इनका उद्देश्य शरीरको एक गाडीतुल्य समझ भोजनरूपी तेल देते हुए जीवनयात्रा करना रहता है । उनका बह इह विश्वास है कि शरीरका पोषण आत्माके सच्चे हितशा कार्य नहीं करेगा । आत्माका शोषण करनेवाली क्रियाएँ पारीरकी अभिवृद्धिनिमित्त होंगी। योगिराज पूज्यपाद कितनी मार्मिक नात कहते हैं "यज्जीवस्योपकाराय तदेहस्यापकारकम् । यदेहस्योक्काराय सज्जीवस्यापकारकम् ।।" ___ - इष्टोपदेश १९१ अहिंसात्मक दृष्टि और चर्या एवं शरीरके प्रति निर्ममत्व होने के कारण ये स्नान, दन्तधावन, वस्त्रधारणके प्रति विरक्त हो खड़े होकर अपने हाथरूप पात्रों में दिन में एक बार गोचरीवृत्ति द्वारा शुद्ध और तपश्चमि वृद्धि करनेवाले भोजनको अल्पमात्रामें ग्रहण करते हैं। गाय जिस प्रकार त्रास डालनेवाले व्यक्ति के सौन्दर्य आदिपर तनिक भी दृष्टि न दे अपने आहारको लेती है, उसी प्रकार यह महान साधक देवांगनासमान सुन्दरियों आदिके द्वारा भी सादर आहार अपित करने पर निर्मल मनोव सिपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। दाताके शरीर-सौन्दर्य मादिसे उनकी आत्मा तनिक भी रागादि विकारपूर्ण नहीं होती । उनकी आहार पर्याको मधुकरी वृति भी कहते हैं । जैसे—मधुकर--भ्रमर पुष्पोंको पीड़ा दिए बिना आवश्यक रस लाम लेता है, उसी प्रकार में सन्त-जन गृहस्थ के यहाँ जैसा भी रूखा-सूखा भोजन बना हो और शुद्ध हो, उसे शान्तिपूर्वक ग्रहण करते हैं । इनके
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy