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________________ जैनशासन आहारनिमित्त गृहस्थको कोई कठिनाई नहीं होती। ऐसे योगियों को आहार अर्पण करने के समयको वह अपने जीवनको सुनहरी घड़ियोंमें गिनता है । कारण, इस पवित्र कार्यसे गुह्मास में घपको, दूल्हा, ऊखली, बुहारी, जल-संग्रह रूप, 'पंच-सूना' नामके कार्यों द्वारा संचित दोषोंका मोचन होता है। साघु दैन्यपूर्वक आहार ग्रहण नहीं करते । गृह अद्धा, भवित. प्रेम और आदरपूर्वक जब आहार ग्रहण करने की मुनिराजसे प्रार्थना करता है, तब वे शुद्ध, सात्त्विक तथा श्रेष्ठ अहिंसात्मक वृत्तिके अनुकूल आहार लेते है। अन्य-पंयी साधु नामधारी व्यक्तियोंके समान गांजा, समास्यू, हुक्का ग्रहण करना, मनमाना भोजन लेना, दिन और राधिका भेद न रखना नादि बातोसे ऐसे सन्त पृथक रहते हैं । कोई-कोई सोचतं है-महान् साधु को सद्ध-अशुद्ध आदिका भेद भुला जैसा भी भोजन जन्म जिसने दिया, उसे ले लेना चाहिए। यह विचार भ्रमपूर्ण है । साधुओंका विवेक सदैव सजग रहता है । उसके प्रकाशमें अहिंसात्मक वृत्तिको रक्षा करते हुए वे उचित और शुद्ध आहारको ही ग्रहण करते हैं। वेदान्त-सारमें लिखा है-यदि प्रबुद्ध तत्त्वज्ञानीके आचरणमें स्वच्छताका प्रबंश हो जाए तब तरमज्ञानी और कुत्तेकी अशुचिभक्षण वृत्तिमं क्या अन्तर रहेगा ? जैन-मुनिका केशलोंच और आहार-चर्या दर्शकके चित्तमें गहरा प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। औरंगजेबके समयमें भारत आनेवाले शा० बनिपर अपनी पुस्तकमै लिखते है-"मुझे बहुधा देशी रियासतोंमे दिगम्बर मुनियोंका समुदाय मिलता था। मैंने उन्हें बच्ने दाहरों में बिहार करते हुए पूर्णतया नग्न देखा है और उनको ओर स्त्रियों, लड़कियोंको बिना किसी विकार-युक्त हो दृष्टिपात करते हुए देखा है । उन महिलाओं के अन्तःकरणमें थे ही भाव होते थे जो सड़कपरसे जाते हुए किसी साधुको देखने पर होते हैं। महिलाएं भक्तिपूर्वक उनको हार बहुधा कराती थीं। " एक दूसरे विदेशी यात्री टेवनियरने लिखा है-'यद्यपि १. "कुडा तसतत्त्वस्य पपेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वशां चैन को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥" -पू०१४। 2. "I bare often met generally in the territory of some Raja bands of these tiaked Fakirs. I have seen them walk stark naked through a large town; wonen & girls looking at them without any more emotion than may be created, when a hermit passes through our streets. Females often bring them alms with devotion......" Dr. Bernier's Travels in the Mog. hul Empire, p. 317.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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