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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय श्रीपाश्र्वात् साधुतः साधुः कमठात् खलतः खलः । पाश्वभ्युदयत: मान्यच वा दृश्यते ॥" साधुतामें भगवान् पाश्र्वनाथके सदृश अन्य नहीं दिखता है और दुष्टता करने में कमठके समान कोई और नहीं है। पाश्वनाथ भगवान्के अभ्युदयका वर्णन करने वाले पार्वाम्पुदय कान्य सदृश रचना भन्यत्र नहीं है । __ महाकवि हरिचन्दका घमंशामाभ्युक्य अनुपम रत्न है। रही बात जीवन्धरचाम्पूफे विषय में चरितार्थ होती है । संस्कृतज्ञोंके संसारमें वाणकी यह सूक्ति सुप्रसिद्ध है कि हरिचन्द्र महाकविकी गद्य रचना श्रेष्ठ है-'भट्टारहरिचन्दस्य पबन्धो नपायते' । महाकवि अहसासका पुषदेवचम् अत्यन्त मनोहारिणी, पांडित्य एवं कवित्व पूर्ण रचना है । मुनिसुव्रतकापकी रचना भी अत्यन्त सुन्दर है। मनोहर एवं गंभीर अनुभवपूर्ण मुभाषित रत्नोंसे अलंकृत तथा विशुद्ध विचारोंका प्रेरक क्षत्रचूडामणिकाव्यका रसास्वाद प्रत्येक सरस्वतीभक्तको लेना चाहिए । आचार्य यादोभसिंह का जीबंधरस्वामीके चरित्रको प्रकाशित करने वाला 'गचिन्ताममि' जैसा अपूर्व, गंभीर, कवित्व एवं ज्ञानपूर्ण महाकाव्य जिसके अध्ययन गोचर हुआ है, उसे विदित होगा, कि 'कादम्बरी' ही गद्यजगट्टकी श्रेष्ठ कृति नहीं है; किन्तु गद्य चिन्तामणि और यशस्तिलकचम्पू नामकी जैन रचनाएँ भी है । इस प्रकाश कुछ भक्तोंका यह कीतन कि 'बाणोच्छिष्टमिदं जगत्' अतिशयोक्ति अथवा भक्तिपूर्ण उद्गार माना जायमा । महाकवि वीरनंदिका चंद्रप्रभचरित्र यथार्थमं सुशंके सदृश आनन्द तथा शान्ति प्रदान करता है। कविवर हस्तिमहलका मैपिलोकल्याग तथा विकासकोरव नामक नाटक नाट्य साहित्य में महत्त्वपूर्ण है। यदि सहृदय साहित्यिक जैन काव्यरचनाओंका मनन तथा परिशीलन करें, तो उले यह अनुभव हरेगा, कि जिस प्रकाश तत्त्वज्ञान के क्षेत्रमें अन ऋषियों तथा ज्ञानी जनों ने अपूर्व सामग्री प्रदान की है; उसी प्रकार साहित्य-संसारको भी उनकी बेन अनुपम है। जैन विद्वानों ने संस्कृत भाषा तक ही अपनी कल्याणदायिनी रचनाओंको सीमित नहीं किया, किन्तु अन्य भाषाओं में भी उनकी रचनाएँ गौरवशालिनी है । प्रत्येक जीवनोपयोगी विषय पर जैन मुनीन्द्रोंने लोकहितार्थ प्रकाश डालनेका सफल प्रयत्न किया है। प्रोफेसर घूलर का कथन है कि 'जैनियोंने व्याकरण, 1. “The Jains have accomplished so much inportance in gra mmar, astronomy, as well as in some branches of letters that they have won respect even from their enemies, and some of their works are still of importance to European science. The Kanarese literary language and the Tamil and Telgu rest on the four:dations laid by the Jains monks." -Indian Sects of the Jains-p 22.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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