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________________ जैनशासन tist of men, who have attained to Godhood by following its teachings." १९८ -Change of Heart P. 21, मुमुक्षके लिये भैया भगवतीदासजी कहते हैं"तीन लोकके तीरथ जहाँ नित प्रति बंदन कीजे तहाँ । मन-वच काय सहित सिर नाय, वंदन करहिं भविक गुण गाय ॥" कौन साधक मुक्तिकी भावनाके प्रबोधक पुण्य तीर्थोोंको अभिवन्दना द्वारा अपने जीवनको आलोकित न करेगा | साधक के पर्व साधक के जीवन-निर्माण में पर्व तथा उत्सवका महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार तीर्थयात्रा, तीर्थस्मरण आदिसे साधक की आत्मा निर्मल होती है, उसी प्रकार आत्मप्रबोधक पर्वोके द्वारा जीवनमें पवित्रताका अवतरण होता है। कालविशेष आनेपर हमारी स्मृति अतीत के साथ ऐक्य धारण कर महत्त्वपूर्ण घटनाओं को पुनः जागृत कर देती हैं । अतीत नैगमनय भूतकालीन घटनाओं में वर्तमानका आरोप करता है । यद्यपि भगवान् महावीर प्रभुको निर्वाण प्राप्त हुए अवाई हजार से अधिक वर्ष व्यतीत हो गये, किन्तु दीपावलीके समय उस कालभेदको भूलकर संसार कह बैठता है "अद्य दीपोत्सवदिने वर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतः ।" --आलापपति, पृ० १६९ । इस प्रकारकी मधुर स्मृतिके द्वारा साधक उस स्वर्णकालसे क्षणभरको ऐक्य स्थापित कर सात्त्विक भावनाओंको प्रबुद्ध करता है। पर्व और स्पोहार नामसे ऐसे बहुतसे उत्सवके दिवस आते हैं, जब कि अप्रबुद्ध लोग जीवनको रागट्ट पाटिको वृद्धि द्वारा मलिन बनाने का प्रयत्न किया करते हैं। आश्विन मास में बहुतसे व्यक्ति पशुबलि द्वारा अपनेको कृतार्थ समझते हैं । ऐसे पर्व या उत्सवमे साधकको सतर्कतापूर्वक आत्मरक्षा करनी चाहिये, जिनसे आत्मसाधनाका मार्ग अवरुद्ध होता है । जिन पर्यो सात्विक विचारोंको प्रेरणा प्राप्त होती है उनको ही सोरसाइ मनाना चाहिये 1
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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