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________________ १९७ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल जैन तीर्थयात्रा विवरणमें निर्वाणभूमि, अतिशय क्षेत्र पंचकल्याणक स्थल सव साधकोंके लिये पूज्यस्थल बताये हैं। हमने कतिपय स्थलोंका हो ऊपर संक्षिप्त वर्णन किया है, अन्यथा हमें बहदानी स्टेटमें विद्यमान कुलगिरिक विषयमें प्रतिपादन करना अनिवार्य था । यहाँसे इन्ट्रजीत, कुम्भकर्णने तप-साघनाके फलस्वरूप सिद्धि प्राप्त की । वड़वानी के समीप भगवान ऋषभदेवकी ८४ फीट ऊँची खड़गासन मूर्तिकी विशालता दर्शकोंको चकित कर देती है । इतनी विशालपूर्ति अन्यत्र नहीं है । इतिहासातीत कालको मूर्ति कहो जाती है । अब पुरातन मूर्तिका जीर्णोद्वार हो जानेसे पुरातत्वज्ञ प्राचीन ताका प्रत्यक्ष बोत्र प्राप्त करने में असमर्थ है। निर्वाणप्राप्त आत्माएं लोकके शिखरपर विद्यमान रह अपने ज्ञान तथा गाजट भाव में निम्न रहती है। लिगा नौद मानता है, कि दीपकका तेल-स्नेह समाप्त होने पर वह बुझ जाता है, उसी प्रकार स्नहरागादिके क्षय होनेसे जीवन प्रदीप मी बुझा जाता है। जैनदृष्टि में आत्माके विकारोंका पूर्ण क्षय होता है, तथा पूर्ण परिशुद्ध आत्माका पूर्ण विकास होता है ।। साधककी मनोवृत्ति निर्मल करने में पुण्यस्यलोंको निमित्तभाव कहा है । वैसे तो जिम किसी स्थलपर समासीन हो समर्थ साधक विकारों के विनाशाय प्रवृत्त होता है, वहीं निर्वाणस्थल बन जाता है । दुर्बल मनोवृत्तियाले साधकों के लिये अवलम्बनकी आवश्यकता होती है। समर्थ सत्पुरुष जिस प्रकार प्रवृत्ति करता है, वह मार्ग बन जाता है । आचार्य अमितगति कहते हैं "न संस्तरो भद्र, समाधिसाधनं __ न लोकपूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामणि बाह्यवासनाम् ।।" -द्वाविंशतिका २३ । जैनशास्त्रोंके परिशीलनसे स्पष्ट विदित होता है, कि किस महापुरुषने का और किस स्थलसे आत्मस्वातंत्र्य-मुक्ति प्राप्त की । आज तक यह स्थल परम्परासे पूजा भो जाता है। निर्याणभूमिपर मुक्त होनेवाले आत्माके चरणों के विल बने रहते है, उनको हो आराधक प्रणाम कर मुक्त आत्माओंकी पुण्यस्मति द्वारा अपने जीवनको आलोकित करता है । इस प्रमाणों के आधारपर विद्यावारिधि वैरिस्टर धोधम्पतरपजी यह निष्कर्ष निकालते हैं कि-'यथार्थमें जनधर्मके अबलम्बनसे निर्वाण प्राप्त होता है। यदि अन्य साधनाके मागोसे निर्वाण मिलता, तो मुक्त बारमाओंक विषयमे भी स्थान, नाम, समय आदिका प्रमाण उपस्थित करते।' वे लिखते है-''No other religion is in a position to furnish a
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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