SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ [म्भिक ग्रामकी ऋजुकूला नदीके तीर शास्त्र सुदी १० को कैवल्य प्राप्त किया था। गणधरका योग न मिलने के कारण ६६ दिन तक प्रभुका मौन बिहार हुआ और वे राजगृह नगर पधारे आचार्य जिनसेन राजगृहका विशेषण 'जगत्यातम्' देकर उस पुरीको लोक प्रसिद्धत्ताको प्रकट करते हैं । अनन्तर भगवान्ने जस प्रकार सूर्य विश्व प्रबोधन निमित्त उदयाचलको प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपरिमित श्रीसम्पन्न विदुलाल शैलपर आरोहण किया । हरिवंशपुराण में लिखा है शासन "चट्षष्टिदिवसान् भूयो मोनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ||६क्षा आरुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रबोधार्थं स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥ ६२॥” “सर्ग २ | भगवान्‌ की दिव्य वाणी प्रकाशनके योग्य गणधरादिकी प्राप्ति होनेपर विपुलालको ही सर्वप्रथम यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि ६६ दिनके पश्चात् श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके प्रभात में जब कि सूर्य उदय हो रहा था और अभिजित नक्षत्र मी उदित था, भगवान्‌के द्वारा धर्म-तीर्थको उत्पत्ति हुई । आचार्य पवित्र तिलोयपपत्तिमें श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको युगका प्रारम्भ बताते हैं ।" संसारके महान् ज्ञानी सन्त जन और पुण्यात्मा नरनारियोंके आवागमन से राजगिरिका भाग्य चमक उठा। अनेकान्त विद्याके सूर्यने राजगिरिके विपुलाचलके शिखर से मिथ्यात्व अन्धकार निचारिणी किरणोंके द्वारा विश्वको परितृप्त किया, इसलिये राजगिरि और उसके विपुलाचलका दर्शन साधकके हृदय में भगवान् महावीरके समवसरणकी स्मृति जागृत कर देता है । राजगिरिका नाम साधकोंको स्मरण कराता है और सम्भवतः वे अपने ज्ञान नेत्रसे उस अतीतक वाघ्यात्मिक जागरणसम्पन्न भय्य कालको देख भी लें, जबकि वनमालीने आकर मम-सम्राट् श्रेणिकको यह श्रुति-सुखद समाचार सुनाया था, कि श्री वीर प्रभु विपुलावलपर पधारे हैं और उनके आध्यात्मिक प्रभावले सारा वन विचित्र सौन्दर्यसम्पन्न हो गया है । बनपालकके यह शब्द सदा स्मृतिपथमें गूंजते रहेंगे"वीर प्रभू विपुलाचल आए, छह रितु फूली कली कली 1" १. " वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडवाए । अभिजीणक्खसम्म य उप्पती धम्मतित्यस्स 1 सायणबहुले पाविरुद्दमुहुते सुहोदये रविणो । अभिजिस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं ।।६९-७० ।।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy