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________________ ३२४ जैनशासन उन लोगोंके हाथमें हैं जो बापू परम भक्त है। जिस दिशामें सूर्यका उदय होता है, उसे 'पूर्व' नाम से पुकारा जाता है उसी प्रकार जिस व्यक्ति, समाज मा राष्ट्र में हिंसा की प्रतिष्ठा होती है, वहाँ हो सुखके हेतु पवित्र धर्मका वास होता है। एक दिन जैनधर्माचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे मैंने जैन तीर्थ गजपंथामें पूछा था कि आजकल विपद्ग्रस्त मानवता के लिए भारतीय शासनको आप कल्याणका क्या मार्ग बतायेंगे ? आचार्यश्रीने कहा, लोगों को जैन शास्त्रों में वर्णित रामचन्द्र, पांडवों आदिका चरित्र पढना चाहिये कि उन महापुरुषोंने अपने जीवन में किस प्रकार धर्मकी रक्षा की और न्यायपूर्वक प्रजाका पालन किया। आचार्यश्रीने यह भी कहा, "सज्जनों का रक्षण करना और दुर्जनोंका दात करना यह रात है। राजाको सच्चे धर्मका लोप नहीं करना चाहिये और न मिथ्या मार्ग का पोषण हो करना चाहिए। हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन तथा अतिलोभ इन पंच पापों के करने वाले दंडनीय हैं, ऐसा करनेसे राम-राज्य होगा । पुष्दकी भी प्राप्ति होगी । हिंसा आदि पापही धर्म तथा अन्याय है। गृहस्थ इन पापों का स्थूल रूपसे त्याग करता है। सत्य बोलने वालेको डंड देना और झूठ बोलनेवालोंका पक्ष करना अनोति है" उन्होंने यह महत्वको बात कहो, राजा पर यदि कोई आक्रमण करे, तो उसे हटानेको राजाको प्रति आक्रमण करना होगा । ऐसी विरोधी हिंसाका त्यागी गृहस्य नहीं है। शासकका धर्म हूँ कि वह निरपराधी जीवोंकी रक्षा करे, शिकार खेलना बन्द करावे, देवताओंके लिए किये जाने वाले बलिदानको रोके । दारू, मांसादिका सेवन बन्द करावे । परस्त्री अपहरणकर्ताको कड़ा दंड दे जुआ, मांस, सुरा, वेश्या, आखेट, चोरी, परांगना इन साठ भ्यसनोंका सेवन महापाप है। इनकी प्रवृत्ति रोकना चाहिए। ये अनर्थकं काम समझानेसे बन्द नहीं होंगे। राज्य नियमको लोग डरते है । अतः कानूनके द्वारा पापका प्रचार रोकना चाहिये । जीवों को सुमार्ग पर लगाना अत्याचार नहीं है । ऐसा करने से सर्वत्र शान्तिका प्रादुर्भाव होया ।" जिनकी अद्भुत अहिंसा केवल मनुष्ययातको हो हिंसा घोषित करती है और जो पशुओं प्राणहरणको दोषास्पद नहीं मानते हैं, उनको दृष्टिको उन्मीलित करते हुए विश्वकक्षि रवीन्द्रबाबू कहते हैं, "हमारे देशमें जो धर्मका आदर्श है, वह हृदयकी चीज हैं। बाहरी घेरे में रहने की नहीं है। हम यदि Sanctity of life जीवनकी महत्ताको एक बार स्वीकार करते हैं तो फिर पशु-पक्षी, कीट, पतंग आदि किसपर इसकी हद्द नहीं बांध लेते हैं। हम लोगोंके धर्मकी रचना स्वार्थ के स्थान में स्वाभाविक नियमने ली है। धर्मके नियमने ही स्वार्थको संयत रखने की चेष्टा की हूँ । " जिस अन्तःकरण में जीव दमाका पवित्र भाव जग गया, वह सभी प्राणियों को अपनी करुणा द्वारा सुखी करनेका उद्योग करेगा ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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