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________________ शरीर और इन्द्रियों की भाषाज्ञ नो पद-पद पर सुनाई देती है. किन्तु अग्तरात्माकी पनि तनिक भी नहीं प्रतीत होती । म स्वामी है। इन्श्यिादिक उसके सेवा है। आत्मा अपने परको भूलकर सेवकों की आज्ञानुमार प्रवृत्ति करता है। अदबावके जगन्में आत्या अस्तित्वहीन सा बना है। उसे इंद्रियों तथा शरीरका. दासानुदास सदृश कार्य करना पड़ता है। जदयायको भौषपर प्रतिष्ठित शानिक विकासमी वास्तविकता पूरोपके प्रांगण में खेले गये महायुद्धोंने दिखा दी। इसमें सन्देह नहीं विज्ञानमे हमें बहुत कुछ बाराम और आभन्दप्रद सामग्री प्रदान की, किन्तु अन्त में उसने ऐगे घातक पदार्थ देना शुरू किया कि उन्हें देश मनुष्य सोचता है कि जितना हमें प्राप्त हमा, उसकी अपेक्षा अलाभ अधिक हला । किसी व्यक्तिने एक बालाको सुमधुर भोजन खिलाया, बोर मनोरंजक सामग्री दो; किन्तु अन्तम उस बालकके प्राण मे । है कि युद्धके पूर्व विज्ञानने बड़ी-बड़ी मोहक तपा आनन्दप्रद सामग्री प्रदान की और अन्त में 'अाधम' सदृश प्राणान्तक निधि अर्पण को, जिसने जापानको लाखों जनताचे प्राणोंका तथा राष्ट्रकी स्वाधीनताका स्वाहा अत्यन्त, अल्प काल में कर दिया। राष्ट्र रक्षा, विजय, विश्व शान्ति सुरक्षा आदिके गागपर शानिक मस्तिष्क कैस-मे पातक यंत्र, गोले, गैस आदिक निर्माणमें अपने अमूल्य मनुष्यभाषको स्यय करता है. और समय जगतकै हारा संगृहीत, मिमित तथा सुरक्षित अमूल्य अपूर्व तथा दुर्लभ सामग्रीका क्षणमा त्रमै म कर देता है। विज्ञानके कार्योपर विचार करें, तो जात होगा कि इसमें निर्माण तथा प्यंसकी सामग्री समान रूपसे प्राप्त हो सकती है। अदि इस विज्ञानको अध्यात्मवादका प्रकाश मिलता. ढो इससे दार अमर्थपूर्ण सामग्रीका निर्माण न होता । बैज्ञानिकोंका कथन है कि वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा परिज किया गया कोयला हीरा बन जाता है। इसी प्रकार यह भी कहना गंगत है कि पवित्र प्रात्मवादके वातावरणमें सुरक्षित एवं संबंधित विज्ञानमा यदि विकास हो. तो मानव-अगत्में लोकोत्तर शान्ति, समृद्धि तथा लेजका उदय होगा। जह पाने गर्भ में अनंत पगरकारोंको प्रदर्शित करनेवालो अनगन गक्तियो विद्यमान है. पिम्हे समझने तथा विक्रमित करने में अनंत-मनुष्य-ब म्यतीत ही तकर्ट है. शिम्भु प्राप्त हुआ है एक दुर्लभ नरजन्म । उनका वास्तविर और कश्याणकारी उपयोग इसमें है कि मारमा पर-पानी अपंचम पॉम अपने अमूल्य का अपव्यय न करे, प्रिन्तु अपनी गामर्थ्य-भर प्रयत्न करे, जिनसे यह आरमा मिभाव या पिरतिका दान: शनैः परित्याग कर सभागर मशील आवे । जिम जम्भ, जरा. पुको मुमीमतमें यह जगत प्रसित है, उससे वचवर ५मर जीवन और अत्यन्त सुखकी उपलब्धि करना सबसे बड़ा चमत्कार है। यह महाविज्ञान (Science of Science) है। भौतिक विज्ञान समुद्रके खारे पानीके समान है। उसे जितना-जितमा पिभोगे उतनी-उतनी प्यास बढ़ेगी। इसी प्रकार विषय भोगोंकी जितनी-गितनी भाराथना और उपभोग होगा, उतनी अशान्ति और लालसा तथा तृष्णाकी अभिवृद्धि होगी। एक आकांक्षा पूर्ण होनेपर अनेक लालसाओंका सवय हो जाता है, जो अपनी पूर्ति होनेता चितको आकुलित बनाती है। माकुलता तथा मुसीवत पूर्ण जीवनको देखकर लोग कभी-कभी सोचते है, यह साफत कहाँ से आ गई? अज्ञानवश बीर अन्यों का दोष देता है, किन्तु विकी प्रागी शान्त भावसे विचारनेपर इसका उत्तरदायी अपनेको मानता है और निश्चय करता है कि अपनी भूलके कारण ही में विपत्तिके सिन्धुमें डूबा बोलतरामजीका कपन कितना सत्य है "अपनी सुधि भूलि आप, भाप बुःख उपायो । क्यों शुक नभ चाल विसरि नलिनी सरकायो । चेतन अविवड, शुब-ब-बोधमय, विशुद्ध, सम, जक-रस-फरस-रूप पुद्गल अपनायो ।॥१॥" कवि और भी महत्त्वकी बात कहते हैं "चाह वाह वाहे, त्याने माह चाहे। समलासुमा न गाहै. 'जिन' निकट जो बतायो ॥२॥" यथार्थमे कल्याणका मार्ग ममता, विषमताका त्याग । मोह, राग, द्वेष, मद, मारसयने विषमताका जाल जगत् भर में फैला रखा है। समताने लिए इस जीगका उनका माधव पहण करना होगा, जिनकं जीवरसे राग देष मोहादिकी विषमक्षा निकल गई है । उनको हो बोतराग, जिन, जिनेन्द्र, बहन्त, परमात्मा कहते है। कर्म पाओके साम्राज्यका अन्त किए बिना साम्यको ज्योति नहीं मिलती। समताके प्रकाराने भेष, विषाद, व्यामोह मा संकीर्णताका सदभाव नहीं रहता। जीतराग, वोतमोह, दीतद्वेष बने बिना, समता-सुवाका रसास्वाद नहीं हो पाता। जो प्राणी काँ तपा गामनाओंका दास बना हुआ है, उसे संयम और समतापूर्ण श्रेष्ठ जीवनको अपना आदर्श बनाना होगा । असमर्थ साधक शक्ति तथा योग्यता को विकसित करता हुआ एक दिन अपने पूर्णता' के व्ययको प्राप्त करेगा। प्राथमिक सापक मद्य, मांसादिका परित्याग करता है, किन्तु लोक जीवन तथा सांसारिक सतरदायित्व रक्षा निमित्त बह शस्त्राविका संचालन कर न्याय पक्षाका संरक्षण करने से विमुख नहीं होता। ऐसे साधकों में समा चन्द्रप्त, बिम्बसार, संप्रति, खारवेल, अमोघवर्ष, कुमारपाल प्रभृति जैन नरेन्द्रोंका नाम
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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