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________________ यह पराधीन, दीन हीन, दुःखी बनी हुई संसारमें परिभ्रमण किया करती है। इन विकृतियों का अभाव हुए बिना पपार्थ धर्मकी जागृति असंभव है। विकारोंके अभाव होनेपर यह आत्मा अनसशक्ति, अनंतज्ञान , अनन्त आनन्द सदृश अपूर्व गुणोंसे आलोकित हो जाती है। विकारोंपर विजय प्राप्त करनेका प्रारंभिक उपाय यह है कि यह आत्मा अपनेको दोन, हीन, पतित न समझे । इसमें यह अखण्ड विश्वास उदित हो कि मेरो मात्मा ज्ञान और कानन्दका सिन्धु है। मेरी आत्मा अविनाशी तथा अनन्तशक्ति-समन्धित है 1 विकृत जड़-शक्तियों के संपर्कसे आत्मा जड़ सा प्रतीत होता है, किन्तु यथार्थमें वह चैतन्यका पुज है । अज्ञान मसंयम तथा अविवेकके कारण यह जीव हतबुद्धि हो अनेक विपरीत कार्य कर स्वयं अपने कल्याणपर कुठाराघात किया करता है। कभी-कभी यह कल्पित शक्तियोंको अपना भाग्यविधाता मान मानवोचित पुरुषार्थ तथा आत्मनिर्भरताको भी भुला देता है । बड़ी कठिनतासे सल्समागम द्वारा अथया अनुभव के द्वारा इसे पह दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है कि जीव अपने भाग्यका स्वयं निर्माता है। यह हीन एवं पापाचरण कर किसीकी कृपासे उच्च नहीं बन सकता । श्रेष्ठ पद प्राप्ति निमित्त इसे ही अपनी अधोमुखी संकीर्ण प्रवृत्तियोंका परित्याग कर आलोकमय भावनाओं तथा प्रवृत्तियोंको प्रबुद्ध करना होगा। जीवनमें उच्चताको प्रतिष्ठित करने के लिए साधकको उचित है कि वह संयम तथा सदाचरणको अधिकसे अधिक समाराधना करे । असंयमपूर्ण जीवन में आरमा शक्तिका संचय नहीं कर सकता । विषयोन्मुख बननेसे आत्माम दैन्य परायलम्बनके भाव पैदा होते हैं। इसमें शक्तिका क्षय होता है संग्रह नहीं । संयम (Self control) और आत्मावलम्वन (Self reliance) के द्वारा यह मामा विकासको प्राप्त होता है । इससे आत्मामें अद्भुत शक्तियोंकी जागृति होती है । अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें करने के कारण साधक तीन लोकको वशमें कारने योग्य अपूर्व शक्तिका स्वामी बनता है। इतना ही क्यों, इन सवृत्तियोंके द्वारा यह परमात्मपदको प्राप्त कर लेता है । जिस प्रकार सूर्यको किरणें विशिष्ट कांच द्वारा केन्द्रित होनेपर अग्नि उत्पन्न कर देती है. इसी प्रकार सदाचरण, संयम सदृश साधनोंके द्वारा चित्तवृति एकाग्र होकर ऐसी विलक्षण शक्ति उत्पन्न, करती है कि जन्म-जन्मान्तरके समस्त विकार तथा दोष नष्ट हो जाते हैं और यह आत्म स्फटिकके सदृश निर्मल हो जाती है। आज पश्चिम तथा उसके प्रभावापन्न देशोंमें जड़वाद (Materialisun) का विशेष प्रभुत्व है। इसने आत्माको अन्धासदृश बना दिया है, इस कारण
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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