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________________ प्राक्कथन भारतवासियों के अन्तःकरणमें धर्मतस्वके प्रति अधिक मादर भाव विद्यमान है। सामान्यतया धर्मोंपर दृष्टिपात ५.रें, तो उनमें कहीं-कहीं इतनी विविधता और विचिनताका दर्शन होता है, कि वैज्ञानिक दृष्टि-विशिष्ट व्यक्तिके अन्त:करणमें धर्मके प्रति अनास्थाका भाव जागृत हो जाता है। कोई कोई सिद्धान्त अपनेको ही सत्यकी साक्षात् मत्ति मानकर यह कहते हैं, तुम हमारे मार्ग पर विश्वास करो, तुम्हारा बेडा पार हो जायगा । कार्य तुम्हारा कुछ भी हो, केवल विश्वासके कारण परमात्मा तुम्हारे अपराधको क्षमा करेगा, और अपनी विशेष कृपाके द्वारा तुम्हें कृतार्थ करेगा। इस सम्बन्ध में तर्कको तर्मनी उठाना महान पाप माना जाता है । ऐसी धार्मिक पद्धतिको विचारक व्यक्ति अन्तिम नमस्कार करता है और हृदयमें सोचता है कि यदि धर्ममें सत्यको सत्ता विद्यमान है, तो उसे अग्मि परीक्षासे भय क्यों लगता है ? ___ कोई लोग धर्मको अस्पस्त गंभीर सूक्ष्म बता सकते है कि धर्मफा समाना 'टेढ़ी खीर' है । जिस व्यक्ति के पास विवेक पक्ष विद्यमान है, वह टेली खीरकी चातको स्वीकार नहीं कर सकता। वह तो अनुभव करता है, कि धर्म टेडा पा वक्र नहीं है। हृदय और जीवन की वक्रता वा कुटिलताको दूरकर सरलताको प्रतिष्ठित करना धर्मका प्रथम कर्तव्य है। इस युगका जीवन इतना कृत्रिम, कुटिल तथा थोथा हो गया है कि उसके प्रभावसे नोति, लोकम्यवहार, धर्माचरण आदि सबमें कृषिमताका अधिक अधिवास हो गया है। अनुभव और विवेकके प्रकाशमें यथार्थ धर्मका अन्वेषण किया जाय, तो विदित होगा कि आत्माकी असलियत, स्वभाव, प्रकृति अथवा अकृत्रिम अबस्था. को हो धर्म कहते है अथवा कहना चाहिये । हम कहते है 'आपसमें लड़ना, झगसना कुप्सोंका स्वभाव है, मनुष्यका धर्म नहीं है।' इससे स्पष्ट होता है कि धर्म 'स्वभाव' को घोषित करता है। विकृति, कृत्रिमता, विभावको अधर्म कहते हैं। जिस कार्यप्रणालीसे आत्माके स्वाभाविक गुणोंको छुपानेवाला विकृतिका परदा दूर होता है और अस्मिाके प्राकृतिक गुण प्रकाशमान होने लगते हैं, उसे भी धर्म कहते है। मोहरूपी भिम्न-भिन्न रंगवाले कांचोंसे धर्मका दर्शन, विविध रूपमे होता है। मोहमयी कांचका अवलम्बन छोड़कर प्राकृतिक दृष्टिसे देखो, तो यथार्थ धर्म एक रूपमें उपलब्ध होता है। राग, द्वेष, मोह, अचान, मिथ्यात्व आदिके कारण मारमा अस्वाभाविकताके फन्देमें फंसी हुई है। इनके जालवश ही
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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