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________________ करना सबसे बड़ा चमत्कार है। यह महाविज्ञान (Science of Science) है । भौतिक विज्ञान समुद्रके खारे पानीके समान है। उसे जितना-जितमा पियोगे उतनो-उतनी प्यास बढ़ेगी। इसी प्रकार विषय भोगों की जितनी-जितनी आरावना और उपभोग होगा, उतनी मशान्ति और लालसा तथा तृष्णाकी अभिवृषि होगी। एक आकांक्षाके पूर्ण होनेपर अनेक लालसाओंका उदय हो जाता है, जो अपनी पूति होनेतक चितको आकूलित बनाती है । माकुलता तथा मुसीबत पूर्ण जीवतको देखकर लोग कभी-कभी सोचते है, यह आफत कहां से आ गई ? अज्ञानवश जीव अन्योंका दोष देता है, किन्तु विकी प्राणी शान्त भावसे विचारनेपर इसका उत्तरदायी अपने को मानता है और निश्चय करता है कि अपनी भूलके कारण ही मैं विपत्तिके सिन्धुमें डूबा हूँ। बलतरामजीका कपन कितना सत्य है "अपनी सुधि लाप, आप तुःख पायो । ज्यों शक नभ चाल बिसरि नलिनो लटकायो ।। चेतन अविचट, शुख-रव-चोखमय, विशुद्ध, तम, अह-रस-रस-रूप पुद्गल अपमायो |११||" कवि और भी महत्वकी बात कहते हैं--- "चाह वाह वाहे, स्पागे न पाह पाहै। समसासुमा न गाहें, 'जिम' निकट जो बसायो ॥२॥" यथार्थ कल्माणका मार्ग है समप्ता, विषमताका त्याग । मोह, राग, द्वेष, मद, मात्सर्यने विषमताका जाल जगत् भर में फैला रखा है। समताके लिए इस जीवका उनका आश्रय प्रण करना होगा, जिनमें जीवनसे राग द्वेष मोहादिकी विषमता निकल गई है । उनको हो वोतराग, जिन, जिनेन्द्र, अहम्त, परमात्मा कहते हैं । कर्म शत्रुओंके साम्राज्यका अन्त किए बिना भाभ्यको ज्योति नहीं मिलती। समताके प्रकाराने भई, विषाद, व्यामोह मा संकीर्णताका सद्भाव नहीं रहता । वीतराग, वीतमोह, पीतद्वेष बने बिना, समता-सुवाका रसास्वाद नहीं हो पाता। जो प्राणी कर्मों तथा वासनाओंका दास बना हुआ है, उसे संयम और समतापूर्ण श्रेष्ठ जीवनको अपना आदर्श बनाना होगा 1 असमर्थ साधक शक्ति तथा योग्यता को विकसित करता हुआ एक दिन अपने 'पूर्णता' के व्ययको प्राप्त करेगा। प्राथमिक साधक मद्य, मांसादिका परित्याग करता है, किन्तु लोक जीवन तथा सांसारिक उत्तरदायित्व रक्षण निमित्त वह शस्त्रादिका संचालन कर न्याय पक्षका सरवण करने से विमुख नहीं होता। ऐसे साधकोंमें सम्राट चन्द्राप्त, बिम्बसार', संप्रति, खारबेल, अमोत्रवर्ष, कुमारपाल प्रभृति जैन नरेन्द्रोंका नाम
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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