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सम्मानपूर्वक लिया जाता है। उनके शासनकालमें प्रजा सुखी हो । उसका नैतिक जीवन भी आदरणीय था। इन नरेशोंने शिकार खेलना, मांस भक्षण सदृश संकल्पी हिंसाका त्याग किया था, किन्तु अधितजनोंके रक्षणार्थ तथा दुष्टोंके निग्रहाई अस्त्र शस्त्रादिके प्रयोगमें तनिक भी प्रतिद्वन्ध नहीं रखा था । अन्यायको दमन मिस इतना जगमा यहार हो । भगवत् जिनसेन स्वामीके शब्दों में इसका कारण यह पा
"प्रजाः पारामा मास्य म्यायं अपरथमः ॥" --महापु० १६॥२५२१
यदि दण्ड धारण नरेश शंथिल्य दिखाते, तो प्रजामें मारस्य न्याय (बड़ी मछली छोटी मछलियोंको खा जाती है. इसी प्रकार बलवान्के द्वारा दुर्यलोंका संहार होना मात्स्य न्याय है) की प्रवृत्ति हो जाती ।
कुशल गृहस्थ जीवनमें असि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि कर्माको विवेकपूर्वक करता है। आसक्ति विशेष न होने के कारण वह मोही, अज्ञानी जीवके समान दोषका संचय भी नहीं करता।
इस वैज्ञानिक युगके प्रभावधश शिक्षित वर्ग में उदार विचारोंका उदय हमा है और वे ऐसी धार्मिक दृष्टि या विचारधाराका स्वागत करनेको सैयार है, जो तर्फ और अनुभवसे अबाधित हो और जिससे आत्मामें शान्ति, स्फूति तथा नव चेतनाका जागरण होता हो । जैनधर्मका तुलनात्मक अभ्यास करनेपर विदित होता है कि जैनधर्म स्यय विज्ञान (Science) है। उस प्राध्यात्मिक विज्ञानके प्रकाश तथा विकाससे जड़वादका अन्धकार दूर होगा तथा विश्वका कल्याण होगा।
जैन-शासनमें भगवान् वृषभदेव आदि तीर्थकरोंने सर्वाङ्गीण सत्यका साक्षात्कार कर जो तात्त्विक उपदेश दिया था, उसपर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है।
जैन ग्रन्छोंका परिशीलन आत्मसाधनाका प्रधास्त मार्ग तो बतायगा ही, उससे प्राचीन भारतको दार्शनिक तथा धार्मिक प्रणालीके विषयमें महत्त्वपूर्ण बातोंका भी बोध होता है । स्व. जर्मन विद्वान शा० कोनोमे यह बात दृढतापूर्वक प्रतिपादित की है कि जैनधर्म पूर्णतया मौलिक तथा स्वतन्त्र है तथा अन्य घोंसे पपा है । इसका अभ्यास प्राचीन भारतके दर्शन और धार्मिक जीवन के अवशोशर्ष भावश्यक है
"'In conclusion let me assert my convicton that Jainism is an original Ayatria, quite distinct, and independent from all otca and that therefore, it is of gicat importance