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for the study of Philosophical thought and religious life in ancient India.'"
भाशा है विचारक बन्धु इस पुस्तकको ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे, और अपने अनुभवमे मिलान करते हुए विधारेंगे, कि इसमें उनके कल्याणको कितनी सामग्री है । 'बाहावाक्यं प्रमाणम्' का प्रतिबन्ध विचारकोंके सत्यको शिरोधार्य करने में समक्ष नहीं आता । धर्म आत्मा और उसके विश्वासको वस्तु है । उसके यथार्थ स्वरूप तथा उपलब्धिपर आत्माका यथार्थ कल्याण अवलम्बित है । अतः आशा है, सहृदय विचारक उदार दृष्टि से जैवशासनका परिशीलन करेंगे।
-सुमेरुचन्द्र दिवाकर
1. Originally published in the Transactions of the third
Informational Congress for History of Religions, Vol II PP. 59-66, Oxford 1908 and reprinted in the Jain Antiquary of June 1944,