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________________ जैनशासन जाता है, जो रागद्वेषकी ग्रन्थिसे उन्मुक्त हों; उनकी मान्यताके अनुसार वस्त्रादिके धारण करते हुए, प्रक्षालनादि करते हुए रागद्वेषका अभाव और परिपूर्ण अहिंसाको साधना और निराकुलता बन सकती है । यह विचार सत्य समर्थित नहीं है । उपनिषद् साहित्यमें जातरूपधारीदिगम्बरको निर्ग्रन्थ कहा है। जाबालोपनिषद्म 'परमहंम' का स्वरूप बताते हुए उसे "यथाजासरूपश्वरो निर्ग्रन्यो निपरिग्रहः'...'कहा है। वस्त्रादि धारण करनेवाला पनि निर्गन्य पक्षी याच माना जाय, तो 'यथाजातरूपधरः' इस शब्द के साथ अर्थका समन्वय नहीं होता। ___ 'निग्गण्ठ' शब्दका प्रकट अर्थ है 'बिना गांठ बाला' । वस्तुतः दिगम्बर अथवा अचेल अबस्थामें ही यह शब्द सार्थक होता है, अन्यथा अधोवस्त्रादिकी मोठोंको धारण करते हुए निरगण्ठ कहना सत्य विरुद्ध होगा। वस्त्र धारण करते हुए अपने को 'निर्ग्रन्थाः पाश्चशिघ्याः वयं'-'हम निम्रन्थ हैं और भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य है' कहनवालोंको गौशाल कहता है-“वस्त्रादि मन्योंको घारमा करते हुए आप किस प्रकार निर्गन्ध है। यथार्थमें वस्त्रादिके परित्यागी और शरीर के विषयम भी उपेक्षा वत्ति धारण करनेवाले निग्रन्थ होते हैं। इस संक्षिप्त विवेचनसे अंग्रेजी विश्वकोपका 'निम्मण्ठ' शब्द द्वारा दिगम्बर जैनियोंका भाव अंगीकार करना सत्यके सुदृढ़ आधारपर अवस्थित दिगम्बर श्रमण के विषय में एक साधक कहता हैदेह मैली है, पर दिल उजला है प्यारे इस खाक के पुतलेमें हीरेकी कनी रहती है। ये साधक आत्म-ज्योतिके प्रकाशमें स्वयंको अनुशासित करते हैं । लौकिक व्यक्तियों द्वारा मानी गई मर्यादाएँ इन महामानवोंका पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकतीं। जड़वादीका मन्तःकरण उनकी गहराईको स्पर्श न कर सके, किन्तु शान और अनुभवके धनी सस्पुरुष इस बातको स्वीकार करेंगे कि सत्तजन ही सम्पूर्ण विश्वको अपना बन्धु मान उस बन्धुत्वका सत्यतापूर्वक संरक्षण करते है । कथन्नु यूयं निषा दस्वादिग्रन्धधारिण: 1 केवलं जीविकाहेतोरिम पाषण्डकल्पना ।। वस्त्रादिसंगरहितो निरपेक्षो वपुष्वपि । धर्माचार्यो हि यादमे नियन्धास्तादृशाः खल ।।" -Vide-Wilson's Religous Sects of the Hindus' p. 293.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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