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________________ सारमा और ससा सत्यकी मर्यादाके बाहर है तथा विवेको व्यक्तियों के लिए पर्याप्त विनोदप्रद है । इसलिए हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि जहां कुतर्क गन्दे जलके सदृश मलिनता तथा अशुद्धताको बढ़ाता है, वहाँ ममीचीन तर्क जीवनकी महान विभूति है । और उसका रस पिए बिना मानवका क्षणभर व्यतीत होना भी कठिन है । मसत्यके फेर में फंसे हुए सत्यको विश्लेषण करनेका तथा उसकी उपलब्धि करानेका श्रेय समोपीन तर्कको ही तो है; अतः समीचीन तक्रके द्वारा हमें परमात्मा और उसके स्वरूपके विषय में वह प्रकाश मिलेगा जिससे अम्बषक की आत्मा में नवोन विचारोंका जागरण होगा । ममीचीन तक अग्नि-परीक्षणमें विश्वनियन्ता परमात्माकी अबस्पिति नहीं रहती। किन्तु, उसी परीक्षणसे परमात्माका शान, आनन्द, शान्त, वीतराग स्वरूप अधिक विमल बन विश्व तथा वैज्ञानिक विषारकोंको अपनी ओर विवेकपूर्वक आकर्षित करता है। स्वामी समन्तभद्र परमात्माकी मीमांसा करते हुए लिखते हैं-"विश्व के प्राणियों में रागादि दोष तथा जानके विकास और 'ह्रासमें तरतमताका सद्भाव पाया जाता है-कोई आत्मा राग-द्वेष-मोह-अज्ञानसे अत्यधिक मलीन होता है तो किसीमें उन विकारोंकी मात्रा होयमान तघा अल्पतर होती जाती है। इससे इस तर्कका सहज उदय होता है कि कोई ऐसा भी आत्मा हो सकता जो राग, द्वेष, मोह आदि विकारोंसे पूर्णतया विमुक्त हो, वीतराग बन सर्वज्ञताकी ज्योतिसे अलंकृत हो । खानिसे निकाला गया सुवर्ण किट्टकालिमादिसे इतना मलिन दीखता है, कि परिशुस सुर्वणका दर्शन करनेवालेका अन्तःकरण उस मलिन अपरिष्कृत सुवर्णमें सु-वर्णवाले सोनेके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करना चाहता। यह तो उस अग्नि आदिका कार्य है, जो दोषोंको नष्ट कर नयनाभिराम बहुमूल्य सुवर्णका दर्शन या उपलब्धि कराती है । इसी प्रकार तपश्चर्या, विवेकपूर्वक अहिंसाकी साधना, आत्म-विश्वास तथा स्वरूपदोषसे समन्दित आत्मा अपनी अनादिकालीन राग-द्वेष, मोह. अज्ञान आवि विकृतिका विध्वंस कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त मुख और अनन्त पाक्तिसम्पन्न परिशुद्ध आत्माकी उपलब्धि करता है । ऐसे पतन्य, मानन्द शादि अगणित विशेषताओंसे अलंकृत श्रेष्ठ आत्माको परमात्मा कहते हैं। समीचीन तर्कवालोंकी दृष्टि में यही ईश्वर है, यही भगवान है । यही परमपिसा, महादेव, विष्णु, बुद्ध, घिधाता, शिव आदि विभिन्न पुण्य नामोंसे संकीर्तित किया जाता है । इसी दिव्य ज्योति के आदर्श प्रकाशमें अनन्त दुःखी आत्माएं अपनी आत्मशक्तियोंको केन्द्रित करती हुई अपनी आत्मामें अन्तहित परमात्मत्वको प्रकट करनेका समर्थ और सफल प्रयास कर सच्ची साधना द्वारा एक समय कृतकृत्य, परिशुद, परिपूर्ण बन जाती है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकरको यह धारणा है कि-इस परम-पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध पर
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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