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________________ परमात्मा और सर्वज्ञता ३१ रूपमें मान इन उद्घोषक शब्दों में निर्दोष, वीतराग परमात्माको प्रणाम किया है"लोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितम् साक्षात् येन यथा स्वयं करतले रेखाश्रयं सांगुलि । रामद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयो नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वन्द्यते ' ॥" - जो त्रिकालयत लोक तथा अलोकके समस्त पदार्थोंका हस्तगत अंगुलियों तथा रेखाओंके समान साक्षात् अवलोकन करते हैं तथा राग-द्वेष, भय, व्याधि, मृत्यु, जरा, चंचलता, लोभ आदि विकारोंसे विमुक्त हैं, उन महादेव - महान् देवकी मैं वन्दना करता हूँ । पूज्यपाद महर्षि कहते है यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः तस्मै संज्ञानरूपाय नमोस्तु परमात्मने । जिनके मोहादिविकारप्रद समस्त कर्मोंका क्षय हो जानेसे शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्ति हुई है, उन सभ्यग्ज्ञानमय परमात्माको मेरा प्रणाम है । परमात्मा और सर्वज्ञता परमात्मा कविको त्रिविध दोष-मालिकासे प्रसित देख कोई-कोई विचारक परमात्मा के अस्तित्वपर ही कुठाराघात करने में अपने मनोदेवता को आनन्दित मानते है । वे तो परमात्मा अथवा धर्म आदि जीवनोपयोगी तत्वोंको मानव बुद्धि के परेको वस्तु समझते हैं। एक विद्वान् कहता है। जिस तर्कके सहारे तत्त्वव्यवस्था की जाती है वह सदा सन्मार्गका हो प्रदर्शन करता हो, यह नहीं है। कौन नहीं १. जय सरवय्य अलोक लोक इक उडवत देखें । हस्तामल ज्यौ हाथलीक ज्यों, सरब जिसे ॥ छह दरम गुन परज, काल त्रय वर्तमान सम । दर्पण जैम प्रकास, नास मल कर्म महातम |1 परमेष्ठी पांचों विधनहर, मंगलकारी लोक में । मन वच काय सिर लाय भुवि आनन्द सौ द्यों धोक में ॥१॥ न्यानतराय, चर्चाशतक ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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