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________________ २३६ जैनशासन ऐतिहासिक शोध से यह प्रकट हुआ है कि यथार्थ में ब्राह्मण धर्मके सभाम अपवा उसके हिन्दूपमं हमें परिवर्तित होनेके बहुत पूर्व जैनधर्म इस देश में विद्यमान था। यह सत्य है कि देशमें बहुसंशाक हिन्दुओं के संपर्कवश जैनियों में ब्राह्मण धर्मसे सम्बन्धित अनेक रीति रिवाज प्रचलित हो गये हैं।" यदि अधिक गंभीरताके साथ अन्वेषण एवं शोधका कार्य किया जाय. तो जनधर्मके विषय में ऐसी महत्वपूर्ण बातें प्रकाशम आवेगो, जिम में जगर चकित हो उठेगा । जो धर्म बहत्तर भारतका धर्म रह चुका है, जो चंद्रगुप्त सदृश प्रतापी नरेशोंके समयमें राष्ट्रधर्म रहा है, उसकी बहुमूल्य सामग्री अब्द भी भूगर्भमैं लुप्त है। भारतके बाहर भी जैनधर्मका प्रसार रातनकाल में रहा है। कुछ वर्ष पूर्व आस्ट्रियाके वडापेस्ट नगरफे ममोपची खंत में एक किमानको भगवान महावीरकी मूर्ति प्राप्त हुई थो ।' ___एफ पुरातत्रवेत्ताका कथन है... अगर हम इस मील लम्बी त्रिज्या (Radius) लेकर भारतके किसी भी स्थान को केन्द्र बना वृत्त बनावें तो उसके भीतर निश्चय मे जैन भग्नावशेषों के दर्शन होंगें ।" इससे जैनधर्म के प्रमार और पुरातनकालीन प्रभावका बोध होता है। जमधर्मकी प्राचीनतापर यदि दार्शनिक शैलीसे विचार किया जाय, तो कहना होगा, कि यह अनादि है। जब पदार्थ अनादि-निधन है, तब बस्तुस्वरूपका प्रतिपादक सिद्धान्त क्यों न अनादि होगा? डा पद्धति से विचार करने पर जैनधर्म विश्वका सर्वप्राचीन धर्म माना जायगा । गह धर्म सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान के द्वारा प्रतिपादित सत्यका पुजस्वरूप है, अतः इसमें कालकृत भिन्नताका दर्शन नहीं होता और यह एकविध पाया जाता है । स्मिथ सदृश इतिहासवेताओंने इसे स्वीकार किया है कि जैनधर्मका वर्स मान रूप (Present form) लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी विद्यमान था । बौद्धपाली ग्रन्थों में भी इसकी प्राचीनताका समर्थन होता है। जैनशास्त्र बताते हैं कि इतिहासातीत काल में भगवान् वृषभ १. Vile Samprati p. 335, R. "A: eminent archaeologist says that if we draw a circle with a radius of ten miles, baving any spot in India as the centre, we are sure to find some Jait remains within that circle" -Vide Kannad Monthly Vivekabhyudaya p. 96, 1940. "The Nigganthas (Jains) are never referred to by the Buddhists as being a new sect, nor is their reputed founder Nataputta spoken of as their fouider, wlience Jacobi piausibly argues
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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