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________________ २४० जैनशासन कार्य संपन्न किया जाता था । दानकी घोषणा कर दानवीर बननेके बदले साविक भावापन्न धनी श्रावक गुप्त रूपसे सहायता पहुँचाया करते थे । सर्वामम्बर रचित 'नगर' (११ मार्च सन् १९४७, कच्छ प्रान्त के भद्रेश्वर • 'हरिजन' १३१२ में बो पृ० १४३ ) में एक लेख छपा था, कि संवत् पुरमें श्रीमाली जैन जगडू नामक थावक बड़े संपन्न सथा दानशील थे, रात्रि समय सोने के दीनार सिक्का संयुक्त लाइ समूह' को विपुल मात्रा में कुलीन लोगों को अर्पण करते थे । प्रत्येक प्रान्तके बड़े-बूढों से इस प्रकारकी साधर्मी बाकी कथाएँ अनेक स्थल में सुनने में आती है । खेद है, कि काजके युग में यह प्रवृत्ति सुप्तप्राय हो गई है। अब नामवरीको लक्ष्य करके दान देनेका भाव प्रायः सर्वत्र दिखाई पड़ता है । धर्मके क्षेत्रमें वीरता दिखाने में भी जैन गृहस्थोंका चरित्र उदात्त रहा है । बौद्ध शासक के अत्याचारके आगे अपने मस्तक न झुका मृत्युकी गोद में सहर्ष सो जानेवाले, ताकि अकलंकदेखके अनुज बालक निकलंकका धर्म प्रेम वीरताका अनुपम आदर्श है। विपतिकी भीषण ज्वालामेंसे निकलनेवाले जैन धर्मवीरोंकी गणना कौम कर सकता है ? इतिहासकार स्मिथ महाशय ने अपने 'भारतवर्ष के इतिहास' में लिखा है कि 'बोलवंशी पाण्डय नरेश मुन्दरने अपनी पत्नीके मोहश वैदिक धर्म अंगीकार किया और जैन प्रजाको हिंदू धर्म स्वीकार करनेको बाध्य किया ।' जिनके अन्तःकरण में जैनशासनकी प्रतिष्ठा अपने सिद्धान्तका परित्याग करना स्वीकार नहीं किया। तख्तेपर टांग दिया गया। स्मिथ महाशय लिखते है-ऐसी परम्परा है कि ८००० जैनी फांसी पर लटका दिये गये थे। उस पाशविक कृत्यकी स्मृति मदुरा विख्यात मीनाक्षी नामके मन्दिर मे चित्रोंके रूपमें दीवालपर विद्यमान हैं। आज भी मदुराके हिंदू लोग उस स्थलपर प्रतिवर्ष आनंदोत्सव मनाते हैं। जहां जैनोंका संहार किया गया था। इसे व्यतीत हुए अभी वो सदीका समय अंकित थी, उन्होंने फलतः उन्हें फांसी के १. "स्वर्णदीनार संयुक्तान् लाजपिण्डान् स कोटिशः । निशायामर्पयामास कुलीनाय जनाय च ।। " -जगडूचरित्र ६।१३ । 2. " Tradition avers that 8000 ( eight thousand) of thern (Jains) were impaled. Memory of the facts has been preserved in various ways & to this day the Hindoos of Madura where the tragedy took place celebrated the anniversary of the impaleinent of the Jains as a festival (Utsav ) - V. Smith His, of India.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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