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________________ १५० जनशासन "अद्वैतं न बिना द्वैतात्, अहेतुरिव हेतुना। संजिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यात् ऋते क्वचित् ॥२७॥" -आप्तमीमांसा एक मार्मिक शंकाकार कहता है यदि वास्तविक दैतको स्वीकार किये बिना अहत शब्द नही बन सकता, तो वास्तविक एकांतके अभावमें उसका निषेधक अनेकांत शब्द भी नहीं हो सकता?' इसके समाधानम बाचाय विधानन्धि कहते है कि हम सम्यक् एकांत सदभावको स्वीकार करते हैं, वह वस्तुगत अन्ययाँका लोप नही करता । मिथ्या एकांत अन्य धर्मोका लोप करता है। अतः सम्यक् एकांतरूप तत्त्व इस घचर्चाम बाधक नहीं है। __एक दार्शनिक कहता है, 'अवस्तुका भी निषेध देखा जाता है; गधैक सींगका अभाव है, ऐसे कथनमें क्या बाधा है ? इसी प्रकार अपरमारूप द्वैतका भी अद्वैत शब्द द्वारा निषेध मानने में क्या बाधा है?' हूँत शब्द अखंड (Simplc) है और खरविषाण. संयुक्त पद (Com. pound) है । अत: यह दंतके समान नहीं है। वरविषाण नामकी कोई वस्तु नहीं है । सर और विषाण दो पृथवा-पृथक अस्तित्व धारण करते हैं । उनका संयोग असिद्ध है । जैसा निषेधयुक्त अखंडपद अद्वैत है, उस प्रकारकी दात स्वरविषाणके निषेध नहीं है। अटू ततत्व मानने पर स्वामी समम्सभद्र कहते हैं "कर्मद्वैतं फलद्वेतं लोकद्वैतं च नो भवेत । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात् बन्धमोक्षद्वयं तथा ।।२५।।" -आप्तमीमांसा पुण्य-पापरूप फर्मदत, शुभ-अशुभ फलत, इहलोक-परलोकरूप लोकदत, विद्या-अविद्यारूप द्वैत तथा बंघमोखरूप द्वतका अभाव हो जायगा। आत्मविकास और ब्रह्मत्वकी उपम्धि निमित्त योग, ध्यान, धारणा. समाधि आदिक जो महान शास्त्र रचे गये हैं, उनके अनुसार आचरण आदिको व्यवस्था कूटस्थ नित्यस्व या एकान्त मणिकरव प्रक्रिया नहीं बनती है। महापुराणकार भगवत् जिमसेन कहते है-- शेषेष्वपि प्रवादेषु न ध्यान-ध्येय-निर्णयः । एकान्तदोष-दुष्टत्वात् द्वैताद्वंतवादिनाम् ।।२५३॥ नित्यानित्यात्मकं जीवतत्त्वमभ्यपगच्छतास। ध्यानं स्यावादिनामेव घटते नान्यवादिनाम् ॥२५४॥" पर्व २१
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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