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________________ ३२६ जैनशासन दयाका पता नहीं है । उनको ओटमें तो कपट और दुराचारको छुपाया जाता है।" जैनशासन कहता है, यदि तुम हिंसादि पापोंमें मग्न रहे आए, तो न तो नेता लोग तुम्हें बचा सकेंगे और न दूसरे तुम्हलायेंगे में कारण हम दुःखी हो रहे हैं। भोग और वैभवको परमार्थ सत्य माननेवाले यह सोचते हैं कि जनताका जीवन स्तर (Standard of living) जितना अधिक बड़ा होगा, उतनी ही अधिक शान्ति और समृद्धि होगी। यह एक मधुर तथा मोहक भ्रम है। इसे तो सभी मानेंगे कि जीवनको आवश्यक वस्तुओं से कोई भी व्यक्ति वंचित न रहे, किन्तु विलासितावर्द्धक एवं आमोद-प्रमोदप्रद पदार्थोंके fear ही बात उपयुक्त योजना कल्याणकारी न होगा ? भारतीय दृष्टि से तो वास्तविक सहिमाका उद्भव तब प्रारम्भ होता है, जब व्यक्ति या समाज यथाशक्ति अपनी रावश्यकताओं तथा भोगकी सामग्रीको मर्या दिल करते हुए क्रमशः उनको भी चटाते जाते हैं। हसीमे विश्वके अमर्यादित वैभवका अभिपति चक्रवर्ती, दिगम्बर श्रमणको महात् मान, अपनी प्रणामांजलि अर्पित करते हुए उनको चरण-रजसे अपने को कृतार्थ सोच यह आकांक्षा करता है, कि आत्मा जागृतिका सूर्य उदित होकर मेरी भोग-तंत्रताको निबिड़-निशाको दूर करे। जैनशासन में दिगम्बर गुरु, दिगम्बर मूर्तिको माराधनाका यही अंतस्तत्व है। चैत्रथभते अपने 'अर्थशास्त्र' में कितनी सुन्दर बात लिखी है, ""प्रत्येक व्यक्तिको सभी सेव्य पदार्थोंकी प्राप्ति हो सके, अर्थात् उसकी इच्छानुसार उसका जीवन स्तर बना दिया जाय, यह संभव नहीं हूँ। हो | यदि सभी लोग जैन सदृश होते तो यह संभव था, कारण भारतीयोंके जैन नामक वर्ग में अपनी गौतिक आका क्षात्रको संयत करना तथा उनका विरोध करना पाया जाता है। दूसरा उपाय यह होगा कि यदि दिव्य लोकसे बहुधा तथा विपुल मात्रामें भोग्य पदार्थ आते 1. "But it is quite impossible to provide every body with an many consumer's goods, that is with as high standard of living as he would like. If all persons were like Jains-members of an Indian sect, who try to subdue and extinguish their physical desires, it might be done, If consumer's goods descended frequently and in abundance from the heavens, it might be done. As things are it cannot be done." -Economics by Ferderic Bentham p. 8.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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