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कर्मसिद्धान्त
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किन्तु शुक्ल अन्तः कर्णवाला पूर्णमानव शान्तिपूर्वक गिरनेवाले फलकी प्रतीक्षा करता है ।"
जैन शास्त्रों उपर्युक्त व्यक्तियोंके मनोभावों को 'लेश्या' नामसे वर्णित किया है । क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कपायोंसे अनुरञ्जित मन, वचन, कायको प्रवृत्तिको लेया कहते हैं। जिस व्यक्तिको शुक्ल मनोवृत्ति होगो उसे आचार्य नेमिचन्द्र' 'पक्षपातरहित, आगामी भोगोंको इच्छा न करनेवाला, सर्व जीवोंपर समान दृष्टि, राग-द्व ेष तथा स्त्री-पुत्रादिमें स्नेहरहितपरणति सम्पन्न बताते हैं । उपर्युक्त वृक्षके उदाहरण में उस शान्त और सन्तुष्ट व्यक्तिका भाव बताया है कि वह वृक्षको तनिक भी पीडा दिना पहुँचाये गिरनेवाले आमकी प्रतीक्षा है | उसकी कितनी उच्च मनोवृत्ति है। ऐसे साधुचेतस्क व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी सबके द्वारा आदरपात्र होते हैं । उस व्यक्तिकी तृष्णा, स्वार्थपरता और दुष्टताको भी कोई सोमा है, जो अपनी मर्यादित आवश्यकताको पूर्ति के सिवाय दूसरे महतोंकी आवश्यकताओंको सर्वाके लिये संहार करनेपर उतारू हो वृक्षको जड़मूलसे उखाड़ना चाहता है। गोम्मटसार में ऐसे मनोवृत्तिवालेके विल इस प्रकार बताए है। वह अत्यन्त जय स्वभावयुक्त जोवन भर वैरको न भूलने वाला, निन्दनीय भाषणकर्त्ता, करुणा-धर्म आदि से होन, दुष्ट और किसीके न होनेवाला कहा गया है ।
समश्र न
इन दोनों मनोवृत्तियोंके मध्यवर्ती जीवोंका वर्णन उक्त चित्रके द्वारा हो जाता है । मिवनीक विशाल जैन मन्दिर में वर्णित चित्रके सुन्दर भावको देख दो आगन्तुक हाईकोर्ट जजोंने मनोभावों को व्यक्त करनेकी प्रवीणताको हृदयले सराहना की थी । मनोभावोंका सूक्ष्मता से सफल सजीव चित्रण करने में जनशास्त्रकार बहुत सफल हुए हैं । और यह सफलता यांत्रिक आविष्कारोंकी अपेक्षा अधिक कठिन और महत्त्वपूर्ण है। अपने राजयोगमें बी विवेकानन्य लिखते हैं- "बहिर्जगत्की क्रियाओंका अध्ययन करना अधिक मासान है, क्योंकि उसके लिए बहुत यंत्रोंका आविष्कार हो चुका है, पर अन्तःप्रकृति के लिए हमें किन यन्त्रोंसे सहायता मिल सकती है ?"
१. "ण य कुणइ पखवायं ण वि य शिक्षाणं समोय सवसि । पत्थिय राय दोसा होविय सुरूच लेस्सस्स ॥५१६॥"
- गो० जी० ।
२. " चंखाण मुचइ शेरं मंडनसीलो य धम्मदयरहिओ | दुट्ठो ण य एदि वसं लवणमेयं तु किन्हस्स || १०८ || " गो० जी० ।
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