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________________ २३८ जैनशासन कुछ लोगोंकी एसो भी समझ है कि वास्तविक बीरताके विकास के लिये अहिंसाकी आरावना असाधारण कंटकका कार्य करती है। अहिंसा और वीरतामें उन्हें आकाश-पातालका अंतर दिखाई देता है। वे लोग यह भी सोचत है कि वीरताके लिये मांस भक्षण करना, शिकार खलना आदि आवश्यक है । अहिसात्मक जोवन शिकार तथा मांसभक्षणका मूलोच्छेद किये बिना विकसित नहीं होदा । अतः अहिंसात्मक जैनधर्मको छत्रछाया पराक्रम-प्रदीप बगबर प्रकाश प्रदान नहीं कर सकता। यह जैनधर्मको अहिंसाका प्रभाव था जो वीरभू भारत पगनता के पाशमं ग्रस्त हुआ । एक बड़े नेताने भारतके राजनैतिक अधःपातका शेष जैनधर्म की अहिंसाको शिक्षाके ऊपर लादा था। ऐसे प्रमुख पुरुषोंकी भ्रान्त धारणाओंपर सत्यके आलोकमें विचार करना आवश्यक है। अहिंसात्मक जीवन बीरताका पोषक तथा जीवनदाता है । बिना वीरतापूर्ण अंतःकरण हुए इस जीवके हृदय, अहिंसाकी ज्योति नहीं जगतो । जिसे हमारे कुछ राजनीतिज्ञान निदनीय अहिंसा समझ रखा था यथार्थमैं वह कायरता और मानसिक दुर्बलता है । इस ओर बकराजके वर्णमें वाह्य षवलता समान रूपसे प्रतिष्ठित रहता है। उनकी विसतिम महान् अंतर है। इसी प्रकार कायरता अथवा भीरतापूर्ण वृत्ति और अहिंसामें भिन्नता है । अहिंसाके प्रभावसे आत्मशक्तियोंकी जागति होती है और आत्मा अपने अनंत वीर्यको स्मरणकर विरुद्ध परिस्थितिके आगे अजेय और अभयपूर्ण प्रवृत्ति करने में पीछे नहीं हटता । जिस तरह कायरतासे अहिंसाधानका बोरतापूर्ण जीवन जुदा है उसी प्रकार क्रूरतासे भी उसकी आत्मा पृथक् है । क्रूरता प्रकाश नहीं है। वह अस्पंत अंघों और पशुतापूर्ण विचित्र मनःस्थितिको उत्पन्न करतो है । साधक अपनी आत्मजागृति-निमित्त क्रूरतापूर्ण कृतियोंसे बचता है, किंतु वीरताके प्रांगणमें वह अभय भावसे विचरण करता है वह तो जानता है-'म में मृत्युः, कुतो भीति:'-जब मेरी आत्मा अमर हे तब किसका भय किया जाय ? डर तो अनात्मज्ञके हृदयमें सदा वास करता है । क्रूरताकी मुद्रा धारण करनेवाली कथित वीरताके राज्य में यह जगत् यथार्थ शांति और समृद्धिके दर्शन से पूर्णतया बंचित रहता है। क्रूर सिहके राज्यमें जीवधारियोंका जीवन असंभव बन जाता है । उसी प्रकार क्रूरता-प्रघान मानवसमुदायके नेतृत्वमें अशांति, कलह, असंतोष व्यथा और दुःखका ही नग्न नर्तन दिखाई देगा। जव अहिंसात्मक व्यक्तियोंके हाथमें भारतकी बागडोर थी, 'तर देशका १. चंद्रगुप्त आदि जैन नरेशोंके शासनका इतिवृत्त इस यातका समर्थक है । +-.. -...- +. . . = ..
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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