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________________ ३०४ जैनशासन जैसे पंचतंत्रका वृद्ध यात्र अपनेको बड़ा भारी अहिंसावती बसा प्रत्येक पथिकसे कहता था - 'दं सुवर्ण-कणं गृह्यताम्' । जिस प्रकार एक गरीब ब्राह्मण व्याघ के स्वरूपको चक्करमें आ प्राणोंमें हाथ धो बैठा था, वैसे ही उच्च सिद्धांतोंको घोषणा करने वालों के फन्दे में लोग फँस जाते हैं, और अकथनीय विपत्तियों को उठाते हैं। आश्रितों का शोषण, अपनी श्रेष्ठताका अहंकार, घृणा तीव्र प्रतिहिंसा की भावना आदि बातें आजके प्रगतिगामी या उन्नतिशील राष्ट्रोंके जीवनका आधार है । यो सेवा करा प्रायः यानिक आश्वासनका विषय बन रही है। सभी भौतिकवादका अधिक विकास होनेके कारण पहले तो इनकी आँखें विज्ञान के चमत्कार के आगे चकाचौंध युक्त सी हो गई थीं, किन्तु एक नहीं, दो महायुद्धोंने विज्ञानका उन्नत मस्तक मीचा कर दिया। जिस बुद्धिवैभवपर पहले गर्म किया जाता था, आज वह लज्जा का कारण बन गई। अणुबम (atom bomb ) नामकी वस्तु इस प्रगतिशील विज्ञानकी अद्भुत देन है, जिसने अल्पकालमें लाखों जापानियोंको स्वाहा कर दिया । लाखों बच्चे, स्त्री, असमर्थ पशु, पक्षी, जलचर आदि अमेरिकाकी राजकीय महत्त्वाकांक्षाकी पुष्टिकी लालमानिमित्त क्षणभर में अपना जीवन खो बैठे 1 कितना बड़ा अन्धेर है ! कुछ जननायकों के चित्तको संतुष्ट करने के लिए अन्य देश अथवा राष्ट्र के बच्चों, महिलाओं नादिके जीवनका कोई भी मूल्य नहीं है। वे क्षणमात्रमें मौत के घाट उतार दिये जाते हैं । यह कृत्य अत्यन्त सम्योंके द्वारा संपादित किया जाता है। सम्राट् अशोकने अपनी कलिंगविजय में जब लाख से ऊपर मनुष्यों की मृत्यु का भीषण दृश्य देखा, तो उस चण्डाशोककी मात्मामें अनुकम्पाका उदय हुआ । उस दिनसे उसने जगत् भर में अहिंसा, प्रेम, सेवा, भादिके उज्ज्वल भाव उत्पन्न करने में अपना और अपने विशाल साम्राज्यको शक्तिका उपयोग किया। अशोकके शिलालेखकी सूचना नं० १३ में अपने वंशज के लिए यह स्वर्ण शिक्षा दी थी- "के यह न विचारें कि तलवार से विजय करना विजय कहलाने के योग्य है। वे उसमें नाश और कठोरता के अतिरिक्त और कुछ न देखें। वे धर्मको विजयको छोड़कर और किसी प्रकारकी विजयको सच्ची विजय न समझें। ऐसी विजयका फल इहलोक तथा परलोक में होता है।" किन्तु काजको कथा निराली है । होरेशिमा द्वीपमें विपुल जनसंहार होते हुए भी अमेरिकाकी आंखों का खून नहीं उतरा और न वहाँ पश्चातापका ही उदय हुआ। पचात्ताप हो भी क्यों, किसके लिए ? आत्मा है क्या चीज ? जबतक श्वास है, तब तक ही जीवन है। जो अपने रंग तथा राष्ट्रीयताके हैं, उनका ही जीवन मूल्यवान् है, दूसरोंका जीवन तो बासपात के समान है । यह तत्वज्ञान कहो, या इस नशेके कारण बड़े राष्ट्र मानवता के मूल
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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