SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ जैनशासन आदिमें बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि यह जगत् सतस्वरूप होनेसे अनादि और अनिधन-अनन्त है। भला, जिन तत्वोंको अवस्थिति के लिए स्वयंका बल प्राप्त है, दूसरे शब्दों में जो स्वका अवलम्बन करनेवाले मात्म-शक्तिका आश्रय तथा सहयोग प्राप्त करनेवाले है, उनके भाग्य-निर्माणको बात अन्य विजातीय वस्तुफे हाथ सौंपना अनावश्यक हो नहीं, वस्तु स्वरूपी दृष्टि से भयंकर अत्याचार होगा। एक द्रव्य जो स्वयं निसर्गतः समर्थ, स्वावलम्बी, स्वापजीवी है, उसपर किसी अन्य शक्तिका हस्तक्षेप होना न्यायानुमोदित नहीं कहा जा सकता । वास्तव में देखा जाए तो जगत् पदार्थोंके समुदायका ही नाम है, पदार्थपुञ्जको छोड़ विश्व नामकी और कोई वस्तु ही नहीं जो अपने स्रष्टाका सहारा चाहे । वस्तुका स्वाभाविक स्वरूप ऐसा है कि उसे अन्य भाग्य-विधाताको कोई आवश्यकता नहीं है, जिसकी इच्छानुसार वस्तुको विविध परिणमनरूप अभिनय करने के लिए बाध्य होना पड़े। विघाताके भवतोंके मस्तिष्क में आदि तथा अन्तरहित स्रष्टाके लिए जिस युक्ति तथा श्रद्धाके कारण स्थान प्राप्त है वही औदार्य अन्य यस्तुओंको अनादि निधन माननेमें प्रदर्शित करना चाहिए । इस प्रकार जब विश्व अनादि-निवन है, तब बाइबिलको यह मान्यता कि "परमात्माने ब्रह दिन सम्पूर्ण भताने काम गहरके सारो ना फंक मारकर उसम रूह पैदा कर दी, इस महान कार्यके करनेसे थान्त होनेके कारण रविवारको यह विश्राम करता रहा," ताकिकताको कसोटीपर अथवा दार्शनिक परीक्षणमें अग्निमें नहीं टिक पाती। जिस प्रकार सचेतन तत्व अनादिनिधन है, उसी प्रकार अचेतन तत्त्व भी है। ब्रह्मरूप अण्डसे विश्वकी उत्पत्ति जिस तरह एक मनोहर कल्पना मात्र है, उसी तरह पश्चिमके पण्डित लाप्सास महाशयका यह कहना है कि-"पहिले जगत्में सचेतन-अचेतन नामकी यस्तु नहीं यो; न पशु-पक्षी थे, न मनुष्य थे और न दृश्यमान पदार्थ हो । पहिले सम्पूर्ण सौर-मंडल प्रकाशमान गैस रूपमें पिण्डित था, जिसे नेबुला (NEbola) कहते हैं। धीरे-धीरे शीतके निमित्तसे वह वाष्प द्रव और दृढ़ पदार्थ बन चला, उसका ही एक अंश हमारी पृथ्वी है ।" सचेतन जगत्के विषयमें कल्पनाका आश्रय लेनेवाले यह पश्चिमी विद्वान् कहते हैं कि 'अगोवा' नामक तत्त्व विकास करते हुए पशु-पक्षी, मनुष्य आदि रूपमें प्रस्फुटित हुआ । एक ही उपादानसे बननेवाले प्राणियोंकी भिन्नता का कारण बारबिन अकस्मात्यादको बताता है, किन्तु ले मार्कका अनुमान है कि बाह्य परिस्थितिमोंने परिवर्तन और परिवर्धनका कार्य किया है, जिसमें अभ्यास, आवश्यकता, परम्परा आदि विशेष निमित्त बनते हैं। विकास सिद्धान्तके महान् पण्डित हारविन महाशयने हो यह नवीन तत्त्व खोजकर बताया, कि मनुष्य बन्दरका विकास
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy