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प्रबुद्ध-साधक विष, शस्त्र आदि उपकरणोंके प्रयोगसे राग-द्वेष मोहाविष्ट प्राणी द्वारा आत्माका बात करनेपर स्वका घात होता है। समाधिमरण को प्राप्त व्यक्ति के राग-द्वेष मोहानिक नहीं होते, इसलिए आत्म-वधका दोष नहीं होता है।
दिगम्बर मुनीन्द्रोंकी शान्त, श्रेष्ठ, निरीह, निराकुल, उदात्तचर्याका जिस किसी मात्त्विक प्रकृतिवाले मानव को दर्शन हो जाता है उसकी आत्मामै यह विचार अवश्य उत्पन्न होता है. जिसे कवि भूषरवासजी इन शब्दोंमें प्रतिबिम्बित करते हैं"कब गृहवाससौं उदास होग्य बन से ऊँ,
ॐ निज रूप गति रोकूँ मन करी की। रहिहौं अडोल एक आसन अन्चल अंग,
सहिहौं परीसह शीत्त, घाम, मेघ-झरी की ।। सारंग समाज खान नौं खुले है आति
ध्यान, दल-जोर जीतूं सेना मोह-अरी की । एकल बिहारी जथाजात लिंगधारी कब, होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की ।"
-जनशतक
दिगम्बर मुनि निशानामतको पो तथा तपश्चर्यास्पो सुम्वादु बलप्रद आहारको ग्रहण कर शनैः शनै: विकास पमपर प्रगति करते हुए इतनी उन्नति करते है, कि जिसे देख जगत् चकित हो जाता है। प्राथमिक अवस्थामें दिगम्बर तपस्वियों के पास विश्वको चमत्कृत करने वाली बात भले ही न दीखें, किन्तु न जाने इममेंसे किस साधकको अखण्ड समाधिक प्रसाद रूप अपूर्व सिद्धियां प्राप्त हो जाएँ । भगवान पार्श्वनाथने आनन्द महामुनि के रूप में तीकर-प्रकृतिका बंध क्रिया था-विश्व हितकर अनुपम मात्मा बननकी साधना अथवा शक्षित संचय प्रारम्भ कर दी थी। उस समय उनके योग- लकी महिमा अवर्णनीय हो गई थी । कविने उनके प्रभावको इन शब्दों में अंकित किया है
"जिस बन जोग धरै जोगेश्वर, तिस बनकी सब विपत टलें । पानी भरहिं सरोबर सूखे, सब रितुके फल-फूल फल ।। सिंहादिक जे जात विरोधी, ते सब बरी बैर तजै । हेस भुजंगम मोर मजारी, आपस में मिलि प्रीति भनें । सोहं साधु चढ़े समता रथ, परमारथ पथ गमन करें | शिवपुर पहुँचनकी उर बाँछा, और न कछु चिल चाह धरै ।