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________________ कल्याणपथ ३१५ अहिंसावादी मधुर-पद-विन्यास में प्रवीण, सुन्दर पक्ष सुसज्जित प्रियभाषी मयूरके समान मनोज्ञ मालूम पड़ते हैं, किन्तु स्वेष्ट सामग्री के समक्ष आते ही, इनकी हिसन वृत्तिका विश्वको दर्शन हो जाता हूँ। ऐसी प्रवृत्ति क्या कभी मधुर फलकी प्राप्ति हो सकती है ? कहते हैं, 'किसीने एक वृक्ष के लहलहाते हुए सुनहरी रंगके पुष्पोंपर मुग्ध हो उस वृक्ष की इस आशा से आराधना आरंभ की, कि फल कालम वह रत्नराशिको प्राप्त करेगा, किन्तु अन्त में उन-उन ध्वनि देनेवाले फलोंकी उपलब्धि उसका दिया। इस वृद्धि वालोंकी उनको चित्तवृत्तिके अनुसार महिलाकी अदभुत रूप-रेखाको देखकर, ataण भविष्यका विश्वास होता है । हिंसा गर्भिणी नीतिको उदरसे उत्पन्न होनेबाली विपत्तिमालिके द्वारा faraht शाचनीय स्थिति दिवेको व्यक्तियोंको जागृत करती है । 1 कहते हैं, इस युगका धर्म समाज सेवा है, और मानवताकी आराधना हो वास्तविक ईश्वरोपासना है । इस विषय में यदि सूक्ष्म दृष्टिसे चिन्तन किया जाय, तो विदित होगा कि यथार्थ मानवता केवल वाणीकी वस्तु बन गई है और उसका अन्तःकरण से तनिक भी स्पर्श नहीं है। पं० जवाहरलाल नेहरूको स्पष्टोक्ति महत्त्वपूर्ण है कि " भाजके जगत्ने बहुत कुछ उपलब्धि की है. किन्तु उसने उद् घोषित मानवता के प्रेमके स्थानमें घृणा और हिंसाको अधिक अपनाया है तथा मानव बनानेवाले सद्गुणोंको स्थान नहीं दिया है।" विशेषकर ऐसा उशहरण को मिलेगा कि जब जापानियति युद्धकालमें अंग्रेजों के बड़े जहाज 'रिपल्स'और 'प्रिंस आफ वेल्प' डुबाये थे, तब एक प्रमुख अंग्रेजको उन जहाजांके डूबनेका उतना परिताप नहीं था, जितना कि उस कार्य में जापानियोंका योग कारण था। उसने कहा था, कदाचित् पीतांग जापानियों के स्थान में तांग जर्मनों द्वारा य ध्वंस कार्य होता, तो कहीं अच्छा था । ऐसे संकीणं, स्वार्थी एवं जघन्य भावनापूर्ण अन्तःकरणमें मानवता का जन्म कैसे सम्भव हो सकता है ? १. "सुवर्णसदृणं पुष्प फलं रत्न भविष्यति । आश्या रोग्य वृक्षः फलकाले दण्डनायते ।। " 2. "The world of today has achieved much but for all its decl. ared love for humanity it has based itself far more on hatred and violence than on the virtues that make man human." -Discovery of India P. 687. . "An Englishman occupying a high position said that he would have preferred if the Prince of Wales and the Repulse had been sunk by the Germans, instead of by the yellow Japanese."-Ibid, p. 544.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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