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________________ इतिहासके प्रकाशमें ૨૨૭ प्रोफेसर चक्रवर्ती मद्रासने वैदिक साहित्यका तुलनात्मक अध्ययन कर यह शोध की कि कमसे कम जैनधर्म उतना प्राचीन अवश्य है, जितना कि हिन्दूधर्म । उनको तर्कपद्धति इस प्रकार है। थैदिक शास्त्रोंका परिशीलन हिंसात्मक एवं अहिंसात्मक यजोंका वर्णन करता है। 'मा हिस्थात् सर्वभूतानि' जीव सष मत करो' की शिक्षाके साथ 'सर्वमेघे सर्ष हम्पात' सब मेघ यज्ञमें सर्वजीवोंका हनन करनेवाली बात भी पाई जाती है। ऋग्वेदमें मुनःक्षेपकी कथा आई है, उसमें अहिंसात्मक बजके समर्थक वसिष्ठ मुनि है और हिंसात्मक बलिदानके समर्थक विश्वामित्र ऋषि है ह वाचार बार है . अहिंसा पाका समर्थन क्षत्रिय नरेश करते हैं और हिंसात्मक दलिदानकी पुष्टि ब्राह्मणवर्गके द्वारा होती है । दैदिक युगके अनन्तर ब्राह्मणसाहित्यका समय भाया । उसमें पूर्वोक्त धाराद्वयका संघर्ष वृद्धिगत होता है । शतपय बाह्मणमे कुरुपांचालके विप्रवर्गको आदेश किया गया है कि तुम्हें काशी, कौशल, विनेह, मगध की ओर नहीं जाना चाहिए, कारण इससे उनकी शुद्धताका लोप हो जायगा । उन देशोंमें पशुबलि नहीं होती है, वे लोग पशुबलि निषेधको सच्चा धर्म बताते हैं । ऐसी अवस्था में कुरुपांचाल देशयालोंका काशी आदिकी ओर जाना अपमानको आमंत्रित करता है। पूर्वको और नहीं जाने का कारण यह भी बताया है कि वहाँ क्षत्रियोंकी प्रमुखता है, वहाँ साह्मणादि तीन वर्गों को सम्मानित नहीं किया जाता। इससे पूर्व देशोंकी ओर जानेसे कुष्पांचालीय विप्रवर्गके गौरवको सति प्राप्त होगी। वाजसनेयो संहितासे विदित होता है कि पूर्व देशके विद्वान् शुद्ध संस्कृत भाषा नहीं बोलते थे। उनकी भाषामै 'र' के स्थानमें 'ल' का प्रयोग होता था।" इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय प्राकृत भाषाका प्रचार था, जिससे पाली तथा अर्वाचीन प्राकृत भाषाकी उत्पत्ति हुई। प्राकुत भाषाका प्रयोग जैन साहित्य में पाया जाता है । उपनिषद्-कालीन साहित्यका अनुशीलन सूचित करता है कि उसमें आत्मविद्याके साथ ही साथ तपश्चर्याको भी उच्च धर्म बताया है। इस युगमें हम देखते हैं कि कुछपांचालीय विप्रगण पूर्वीय देशोंकी ओर गमन करनेको उत्कण्ठित दिखाई पड़ते हैं कारण वहाँ उन्हें आत्मविद्याके अभ्यास करनेका सौभाग्य प्राप्त होता है । पहले जिसको में फुधर्म कहते थे, अब उसे हो प्राप्त करनेको वे लालायित है । याज्ञवल्क्य और राजर्षि जनक आत्मविद्याके समर्थक हैं और अप्रत्यक्ष रीतिरी पशुबलि वाले पुरातन सिद्धान्तका निषेध करते है। इस प्रकार आरमविद्याके रुमर्थक ही पशुबलिके विरोधक थे । इनको ही प्रोफेसर चावर्ती १. “सामणमलिहताण पडिवजह"-युद्वारास अंक ४ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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