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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २५९ गुजरातके नरेश अजय देवने शिवभक्तिके अतिरकवश बारहवीं सदी में जैनियों. का अत्यन्त निर्मम संहार किया और जैन प्रमुख लोगों की बड़ी बेरहमोके साथ इत्या को। श्री आर्चेल (Archael) ने इसे हर हान्दोमे गत किया ₹-- 'Ajayadeva a Shiva King of Gujarat (1174-1176) began his rcign by a merciless persecution of the Jains, torturing their leaders to drath' से अवर्णनीय अत्याचारोंके होते हुए भी डैनिदोंने कभी भी अन्य संप्रदायके देवताओंकी मूर्तियों, मठों, मन्दिरोंका धंस नहीं किया। अनेक कट्टर विद्वान् जैनोंके प्रति अनादरका ही प्रचार करते रहते थे। उपर जैन साहित्यके प्रति साम्प्रदायिक विद्वानों द्वारा भ्रान्त प्रचार भी रहा, अतः अब भारतीय वाङ्मयके विषय में विपक्ष साहित्यिकोंने प्रकाश डाला, तब भी जैन वाइमायके बारे में प्रान्त धारणाओंकी अभिववि हई । मेग्डाना जैसे पश्चिमके पण्डितोंकी "India's Past' पुरातन भारत सम्बन्धी रखनाओंमे जैन अन्योंकि विषयमै अत्यन्त अल्प प्रकाश प्राप्त होता था। कभी-कभी तो ऐसा मालूम पड़प्ता भा, कि भारतीके भण्डारमें जैन ज्ञानी जनोंने कुछ सामग्री समर्पित भी की थी या नहीं; यह निश्चित रूपसे नहीं कह सकत थे । साम्प्रदायिकता अथवा भ्रान्त धारणाओं के भंवरसे जैन वाङ्मयका उद्धार कर जगत्का ध्यान उस ओर आकन पित करने का श्रेय डा. जैकोबी, डा० दल सदृश पाश्चात्य पंडितोंको है। उन्होंने अपार श्रम करके जैन शास्त्रोंको प्राप्त किया। उनका मनन तथा परिपोलन करके जगत्को बताया कि जैन वाङ्मयके कोपमें अमूल्य ग्रन्थ राशि विद्यमान है और वह इतनी अपूर्व तथा महत्वपूर्ण है, कि उसका परिचय पायें बिना अध्ययन पूर्ण नहीं समझा जा सकता। इन विदेशी मध्येताओं के प्रसादसे यह बात प्रकाश आई कि जैन आचार्यों तथा विद्वानोंने जीवन में प्रत्येक अंगपर प्रकाश डालने वाली बहुमून्य सामग्री लोकहितार्य निर्माण की यो । जैन दाङ्मयका विशेष रसपान के कारण तन्मय होनेवाले पा० हटल कितनो सजीव भाषामें अपने अन्तःकरण के उद्गारोंको व्यस्त करते है--"Now what would Sanskrit poetry tsc thc without the large Sanskrit literature of the Jains. The more I learn to know, the more my admiration rises."-"जैनियों के इस विशाल संस्कृत साहित्यके अभावम संस्कृत कविताको 1. "Thus we see that persistent perscutions were directed against the Jains and to the credit of Jainism heit spoken that it 11ever altcmpted to use the sword against other religions." Vide Article "Jain church in mediaevel Iridja. J. G.P. 125, Vol XVIl, 4.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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