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________________ जैनशासन स्वर विशेष के द्वारा होता है उसी प्रकार स्यावाद वाणीके द्वारा जिनेन्द्र भगवान्की निर्दोषताका ज्ञान होता है।" आत्माकी सर्वज्ञतापर तार्किक दृष्टिले पहिले प्रकाश डाला जा चुका है । यहाँ हम बौद्धोंके अत्यन्त मान्य ग्रन्थ मज्झिमनिकाय (भाग १, पृ. ९२-९३) का निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित करते हैं, जिससे जैनधर्मके प्रबल प्रतिद्वंद्वी बौद्ध साहित्य द्वारा भगवान महावीरकी सर्वज्ञता को मान्यतापर प्रकाश पड़ता है। पुरातन बौद्ध पाली वाङ्मयमें भगवान महावीर और जन संस्कृति के विरुद्ध काफी असंयत तथा रोषपूर्ण उद्गार अनेक स्थलोंपर व्यक्त किय गये हैं। भगवान् महावीरके समकालीन साहित्यमें निम्रन्थ ज्ञात-पुत्र महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तथा परिपूर्ण ज्ञान, दर्शनके ज्ञातापनेको मान्यताका उल्लेख अत्यधिक प्रभावपूर्ण साक्षी माना जाना चाहिए । पालोम शब्द ये हैं "निगण्ठो, आबुसो, नाथपुत्तो सम्बच्नु, सम्बदरसावी अपरिसेस जाणदस्सनं परिजानाति ।"-म निए, भाग १, पृ० ९१-९३ : PT.S. वाणीके द्वारा एक साथ परिपूर्ण मत्यका प्रतिपादन करना सम्भव नहीं है, इसलिए जिस धर्म या जिन धर्मों का वर्णन किया जाए वे प्रधान हो जाते हैं और अन्य गौण बन जाते हैं। एकान्त दृष्टि में अन्य गौण धर्मों को वस्तुसे पृथक कर उन्हें अस्तित्वहीन बना दिया जाता है इसलिए मिच्या एकान्त दृष्टिके द्वारा सत्यका सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। अनेकान्त विद्याके प्रकाण्ड आचार्य अमत. चन्द्र कहते हैं जिस प्रकार दधि मन्थन कर मक्खन निकालनेवाली ग्वालिन अपने एक हायसे रस्सी के एक छोरको सामने खींचती है, तो उसी समम वह दूसरे हायके छोरको शिथिल कर पोछे पहुँचा देती है, पर छोड़ती नहीं है, पश्चात् पीछे गये हुए छोरको मुस्प बना रस्सीके दूसरे भागको पीछे ले जाती है। इस प्रकार आकर्षण और शिथिलीकरण क्रियाओं द्वारा दषिसे सारभूत तत्त्वको प्राप्त करती है। बनेकान्त विद्या एक दृष्टिको मुख्य बनाती है और अन्यको गौण करती है। इस प्रक्रियाके द्वारा वह तत्त्वज्ञान रूप अमृतको प्राप्त कराती है। पहिले संखियाको जन साधारणकी भाषामें प्राण-घातक बताया था, वैद्यराजको दृष्टिम उसे उसके विपरीत प्राण-रक्षक कहा था । इन परस्पर विरोधी १. एकनाकर्षन्ती लययन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ।" “पुरुषार्थसिद्धधुपाय २२५
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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