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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद प्रतीत होने वाले वक्तव्योंमें विरोध इस प्रकार दूर किया जा सकता है कि यदि मनमानी मात्रा में विना योग्य अनुपान यह खाया जाय तो प्राण-रक्षक नहीं होगा किन्तु चतुर चिकित्सकके तत्वावधान यथाविधि संयन करपर वही रोगनिवारक होगा। इसलिए उसे एक दृष्टिसे प्राणरक्षक कहना ठीक है । दूसरी दृष्टिसे प्राणघातक कहना भी सत्यको मर्यादाके भीतर है। एक तीन इञ्च लाम्बी रेखा खिची है। उसे हम न तो छोटी कह सकते है और न पड़ी। उसका छोटापन अथवा लम्बापन सापेक्ष (Rclative) है। पांच इञ्चवाली रेखा ऊपर खींचने पर वह लघु कही जाती है और दो इच मानवाली दूसरी रेखाकी अपेक्षा वह बड़ी कहीं बातो है। इसी प्रकार वस्तुके स्वरूपके विषयमै साघकको पता लगेगा कि समन्वयकारी परस्परम मंत्री रखनेवाली दृष्टियोंसे वस्तुका स्वरूप ठोक रोतिसे हृदय-ग्राही हो जाता है। यह स्याद्वाद हमारे नित्य व्यवहारकी वस्तु है। इसकी उपादेयता स्वीकार किये बिना हमारा लोक-व्यवहार एक क्षण भी नहीं बन सकता । प्राचार्य हेमचन्द्र ने बताया है, कि स्माद्वादका सिधका सम्पूर्ण विश्वमै चलता है। इसकी मर्यादाके बाहर कोई भी वस्तु नहीं रह सकतो 1 छोटेसे दोपकसे लेकर विशाल आकाश पर्यन्त सभी वस्तुएं किसी दृष्टिसे नित्य और किसी दृष्टिसे अनित्य रूप अनेकान्त मुद्राम अंकित है "आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ।।" अन्पयोगष्य लोक व्यवहारमें हम देखते हैं एक व्यक्ति अपने पिताको दृष्टिसे पुत्र कहलाता है, वही ब्यक्ति, जो पुत्र कहलाता है भानजेकी अपेक्षा मामा, पुत्रको दृष्टिसे पिता भो कहलाता है, इस प्रकार देखनेसे प्रतीत होता है कि पुत्रपना, पितापना, मामापना आदि विशेषताएं परस्पर जुदी-जुदी है किन्तु उनका एक व्यक्तिमें भिन्न दृष्टियोंकी अपेक्षा बिना विरोधके सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार पदार्थों के विषयमें भी सापेक्षताको दृष्टिसे अविरोधी तत्त्व प्राप्त होता है। वैज्ञानिक मान्स्टाइनने अपने सापेक्षतावाद सिद्धान्त (theory of relativity) द्वारा स्याद्वाद दृष्टिका हो समर्थन किया है। वस्तुके अस्तित्व गुणको प्रधान माननेपर सद्भाव सुचकदृष्टि, समक्ष आती है और अब प्रतिषेध्य-निषेध किए जानेवाले धर्म मुख्य होते हैं, तब नास्ति नामक द्वितीय दृष्टि उदित होती है । यस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी दृष्टिसे सत्स्वरूप है, वही यस्तु अन्य पदार्थोंकी अपेक्षा नास्ति रूप होती है ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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