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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७१ आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किस अवस्थामें होता है, इस पर स्वामी पपाद कहते हैं— 'जब अन्तःकरण-जल राग-द्वेष, मोहादिको लहरोंसे चंचल नहीं रहता है, तब साधक आत्मतत्वका साक्षात्कार करता है । अन्यलोग उस तत्वको नहीं जानते है । उनका यह भी कथन है कि इस शरीर में आत्म-दृष्टि या आत्मचिंतनाके कारण यह जीद शरोरन्तर धारण करनेके कारणको प्राप्त करता है | विदेहस्वकी उपलब्धि-शरीर रहित अपने आत्म स्वरूपकी प्राप्ति का बीज है आत्मा में ही आत्मभावना धारण करना । इप्टोपदेशमें कहा है-"तस्त्रका निष्कर्ष है— जीव पृथक् है और पुद्गल भी पृथक है। इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता है, वह इसका ही स्पष्टीकरण है " इस कारण आत्मज्ञानी ऋषि कहते हैं- - जिस उपाय से यह जीव अविद्यामय अवस्थाका परित्याग कर विद्यामव-ज्ञानज्योतिमय स्थितिको प्राप्त कर सके, उसकी ही चर्चा करो, दूसरोंसे उसके विषय में पूछो, उसको ही कामना करो । इतना ही क्यों इसी विषय मन भी हैंगओ आत्माका स्वरूप वाणीके अगोचर है अतः शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे कहते हैं fs आत्माको उपलब्धि के विषय में प्रतिपाद्य एवं प्रतिपादकपनेका अभाव है । आचार्य कहते हैं— 'जो में अन्योंके द्वारा शिक्षित किया जाता है, अथवा जो मैं दूसरोंका उपदेश देता हूँ । यथार्थ में यह अक्ष चेष्टा है; कारण मै विकल्पासीत वचन-अगोचर स्वभाव वाला हूँ । १. " रागद्वेषादिकल्लोलंरलो लं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं सतत्त्वं नेतुरो जनः ॥३५॥" २. “देहान्तर्गतज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीजं विदेहनिष्पत्तेः आत्मन्येवात्मभावना ॥७४॥ ३. "जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसो तत्त्वसंग्रहः 1 यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ||५०||” ४. "तद्भूयात् तत्परान् पृच्छेत् तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३॥ | " ५. यत्परं प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९॥" - स० त० । -स० तं । - स० तं० ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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