SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मकी आधारशिला - आत्मत्व करते हुए कहते हैं-'मेरा अस्तित्व है मतव मैं सोचता हूँ -- I am therefore I think. ' जीवकी प्रत्येक अवस्थामें उसका ज्ञान गुण उसी प्रकार सदा अनुगमन करता है, जिस प्रकार अग्निके साथ-साथ उष्णताका सद्भाव पाया जाता है । सोते-जागते प्रत्येक अवस्था में इस आत्मामें 'अहं प्रत्यय' - - नेका बोध पाया जाता है | यही कारण है कि निद्रा में अनेक व्यक्तियोंके समुदायमें से व्यक्तिविशेषका नाम पुकारा जानेपर वह व्यक्ति ही उटता है, कारण, उसकी आत्मामें इस बात का ज्ञान विद्यमान है कि मेरा अमुक नाम है । १५ जो व्यक्ति महुआ बादि मादक वस्तुओंके सन्धानमें विशेष उन्मादिनी शक्तिकी उद्भूति देख पृथ्वी, जल आदि तत्त्वोंके सम्मिश्रणसे चैतन्यके प्रकाशका आविर्भाव मानते हैं, वे इस बातको भूल जाते हैं कि जब व्यक्तिशः जड़ तवों में सम्यका लवलेश नहीं है, तब उनकी समष्टिमें अद्भुत चैतन्यका उदय कहाँसे होगा ? एक प्राचीन जैन आचार्यका कथन है कि आत्मा शरीरोत्पत्ति के पूर्व था एवं शरीरान्सके पश्चात् भी विद्यमान रहता है “तत्काल उत्पन्न हुए बालकमें पूर्वजन्मगत अभ्यासके कारण माताके दुम् पातकी ओर अभिलापा तथा प्रवृत्ति पायी जाती है । मरणके पश्चात् व्यन्तर आदि रूपमें कभी-कभी जीवके पुनर्जन्मका बोध होता है । जन्मान्तरका किसी किसोको स्मरण होता है। जड़-तत्वका जीवके साथ अन्वय-सम्बन्ध नहीं पाया जाता। इसलिए, अविनाशी आत्माका अस्तित्व माने दिना अन्य गति नहीं है । ว ๆ 'न्यायसूत्र' के रचयिता कहते हैं-"यदि जन्मके पूर्व में आत्माका सद्भाव न होता, तो वीतराग भाव सम्पन्न शिशु का जन्म होना चाहिए था, किन्तु अनुभवसे ज्ञात होता है कि शिशु पूर्व अनुभूत वासनाओं को साथ लेकर जन्म-धारण करता है । 112 . आत्मा के विषय में एक बात उल्लेखनीय है कि वह अपनेको प्रत्येक वस्तुका ज्ञाता के रूप में (Subjectively ) अनुभव करता है और अन्य पदार्थोंको केवल ज्ञेयरूपसे (Objectively ) ग्रहण करता है। भाषा विज्ञानको दृष्टिसे भी आत्माका अस्तित्व अंगीकार करना आवश्यक है, अन्यथा उत्तम पुरुष ( First Person) के स्थान में अन्यपुरुष या मध्यमपुरुष रूप शब्दोंके द्वारा ही लोक व्यवहार होता । अंग्रेजी भाषामें आरमाका वाचक 'I' शब्द सदा बड़े अक्षरों में (Capital letter ) लिखा जाता है। क्या यह आत्माको विशेषताकी ओर संकेत नहीं करता है ? १. " उक्तं चतुदर्ज स्तने हातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥" - प्रमेय रत्नमाला पू० १८१ २. "बीतरागजन्मादर्शनात् " - न्यायसू० ३११।२५।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy